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उपाध्याय पद का प्राराधक
चौथे उपाध्याय पद की आराधना करते हुए आराधक श्रात्मा ऐसी भावना अपने हृदय - कमल में रखे कि मैंने भी जैनशासन प्राप्त किया है । पंच परमेष्ठि- भगवन्त की आराधना कर रहा हूँ । उसमें चतुर्थ पदे रहे हुए श्री उपाध्यायजी महाराज को भाँति “मैं भी उपाध्याय पद के योग्य क्यों न बनूँ ?” यथार्थ आराधन मनुष्य को उसी भूमिका पर ले जाता है । इस पद की प्राराधना से श्री वज्रस्वामी महाराज के शिष्यरत्न देव हुए ।
उपाध्याय पद की भावना
हे पाठक प्रवर ! हे वाचकवर्य ! हे उपाध्याय भगवन्त ! श्रीनमस्कार महामन्त्र के पंच परमेष्ठियों में तथा श्रीसिद्धचक्र-नवपदजी में आपका चतुर्थ स्थान है और गुरुतत्व में आपका द्वितीय- दूसरा स्थान है ।
विश्व में अज्ञान से अन्ध बने हुए जीवों को ज्ञान की दृष्टि देने वाले प्राप हो । नयनों में दिव्य ज्ञान का अंजन प्रजने वाले आप हो । विश्व का दर्शन हो । आत्मा के साथ सम्बन्ध रखने वाले घोर दुःखों का भान कराने वाले आप हो । होने का उपाय बताने वाले भी आप हो
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श्री सिद्धचक्र- नवपदस्वरूपदर्शन - ११३
कराने वाले प्राप प्रष्ट कर्मों के
कर्मों से मुक्त
उत्तम जल,