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ध्यायजी महाराज का ज्ञानरूपी उद्यान ( बाग-बगीचा ) सर्वदा नवपल्लवित और अति विकसित रहता है । जैसे उद्यान हरा-भरा (लीलाछम) शोभता है और प्रेक्षकों को नयनरम्य होता है, वैसे ही श्री उपाध्यायजी महाराज का नील-हरा-लीला वर्ण भी उनके श्रुतज्ञानरूपी उद्यान का पूर्ण विकास दिखलाता है । इस हेतु से उपाध्याय पद की प्राराधना नीलवर्णे होती है ।
( ३ ) दो वर्णों को मिलाने से तीसरा वर्णं उत्पन्न होता है । कृष्ण वर्ण में पीत वर्ण का मिश्रण होने से नील वर्ण उत्पन्न होता है
इस तरह पंचम ( मुनि) पद की कृष्णता में तृतीय प्राचार्य पद की योग्यता की पीतता मिलने पर कृष्ण वर्ण और पीत वर्ण की मिश्ररणता से उत्पन्न हुआ नील वर्ण श्री उपाध्यायजी महाराज को अभिनव श्रेष्ठ शोभा देता है । इस हेतु से उपाध्याय पद की आराधना नील-लीला वणं से होती है ।
(४) मन्त्रशास्त्र में कल्याण-कामना के लिये नील वर्ण से ध्यान करने की बात कही है । श्री उपाध्यायजी महाराज का नील वर्ण भी इसी कारण से है । आराधक के लिये उपाध्याय पद के ध्यान और उनकी आराधना का मुख्य प्राशय ज्ञान प्राप्त कर शिवादि को दूर करने का
श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन- १११