SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्यारह अंग और चौदह पूर्व मिलकर पच्चीस भेदे श्रुतज्ञान का अध्ययन करना और कराना श्री उपाध्यायजी महाराज की गुणपच्चीसी की एक विशिष्टता है। इस तरह विशेषता रूप भिन्न-भिन्न पच्चीस-पच्चीसियाँ (श्री उपाध्यायजी महाराज की) शास्त्र में वर्णित हैं । ऐसे श्री उपाध्यायजी महाराज सर्व संघ के अाधारभूत हैं, समतारस के भंडार हैं, सर्व प्रति समभाव रखने वाले हैं, स्वयं श्रुत पढ़ने वाले हैं और अन्य साधुओं को पढ़ाने वाले हैं, गच्छ-समुदाय में सारणा-वारणा-चोयरणा-पडिचोयणा आदि करने वाले हैं, 'इच्छा, मिच्छा, आवसिया, निसीहिया, तथाकार, छंदना, पृच्छा, प्रतिपृच्छा, उपसंपदा तथा निमन्त्रणा' रूप दस प्रकार की समाचारी के पालन करने वाले हैं। अपनी आत्मा में रमण करने वाले हैं, पंच महाव्रत की पच्चीस भावना भाने वाले हैं, सर्व समय सावधान रहने वाले हैं, प्राचार्यरूपी राजा के आगे युवराज के समान हैं, ग्यारह अंग और चौदह पूर्व को अथवा ग्यारह अंग, बारह उपांग तथा नंदी और अनुयोगद्वारसूत्र को धारण करने वाले हैं, बावीस परीषहों को सहन करने वाले हैं तथा तीन गुप्ति से युक्त हैं। जिनशासन को वहन करने में वृषभ के समान श्रेष्ठ मुनि हैं। आगमशास्त्र की वाचना देने में समर्थ शक्तिमान हैं । स्याद्वाद के सदुपदेश से तत्त्वज्ञानका प्रतिपादन करने वाले हैं। जड़ और चेतन के सि-८ श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१०६
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy