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नेत्रपटल का छेदन करते हैं तब अज्ञान पटल दूर हो जाता है, ज्ञान-नयन खुल जाते हैं । इससे उनको हिताहित का भान होता है। तब यह जीव हित को स्वीकारता है
और अहित को तजता है । श्रुतज्ञान के दान जैसा उत्तम दान सम्पूर्ण विश्व में कहीं भी नहीं है । श्रु तज्ञान के दाता उपाध्यायजी महाराज के प्रताप से ज्ञान लोचन प्राप्त की हुई आत्मा जो आनन्द पाती है अथवा आनन्द का अनुभव करती है वह तो यही आत्मा जानती है ।
(५) पापरूपी ताप का शमन करने वाले- श्रु तज्ञान के
दाता उपाध्यायजी महाराज ने श्रु तज्ञान दान की कला को बहुत सुन्दर रीति से अपनी आत्मा के साथ एक कर दिया है। इसी कला द्वारा उन्होंने श्रुत में आए हुए बावन अक्षरों को बावना-चन्दन बना कर तथा उसको घिस कर रसरूप कर दिया है।
इन्हीं बावन अक्षररूप बावनाचन्दन के रस से उपाध्यायजी महाराज विश्व के लोगों के पापरूपी ताप को शीघ्रतर शमा देते हैं-शान्त कर देते हैं ।
सारांश यह है कि- 'अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ प्रो औ' ये चौदह (१४) स्वर, तथा ‘क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ, ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न, प फ ब भ म, य
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१००