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श्रीउपाध्यायजी महाराज पंचपरमेष्ठियों में चौथे पद पर प्रतिष्ठित हैं। सर्वज्ञ श्रीतीर्थंकरदेशित और श्रुतकेवली श्रीगणधर गुम्फित श्रीपाचारांग आदि द्वादशांगी सूत्रों के स्वाध्याय के पारगामी, उन्हीं के अर्थों के धारक तथा सूत्र और अर्थ उभय का विस्तार करने में सदा रक्त श्रीउपाध्यायजी महाराज हैं।
श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुस्वामी ने आवश्यक नियुक्ति में कहा है किबारसंगो जिरणक्खायो, सज्झानो कहियो बुहेहि । तं उवइ सन्ति जम्हा, उवज्झाया तेरण वुच्चंति ॥१००१॥
श्रीअरिहन्त-तीर्थंकर परमात्मा के द्वारा प्ररूपित बारह अङ्गों (द्वादशाङ्गी) को पण्डित पुरुष स्वाध्याय कहते हैं । उनका उपदेश करने वाले उपाध्याय कहलाते हैं ।
श्रीश्रमणसंघ में आचार्य भगवान के पश्चात् उपाध्यायजी महाराज का महत्त्वपूर्ण स्थान है । प्राचार्य भगवन्त की अनुपस्थिति में शासन का भार उन्हीं पर रहता है। यह भार वहन करने में तथा अपनी समस्त शक्ति का सदुपयोग करने में वे अंश मात्र भी पीछे नहीं रहते हैं। इतना ही नहीं, किन्तु अपने जीवन को शास्त्ररूप सुधासिन्धु में ही मग्न रख कर, प्रत्येक अर्थीजन को उसमें निमग्न करने के
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-६६.