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गरणस्स संधारणसायराणं,
सव्वप्पणावज्जियमच्छराणं ॥१॥ सुत्तत्थसंवेगमयं सुएणं,
संनीरखीरामयविस्सुएरणं । पोणंति जे ते उवज्झायराए,
झाएह निच्चंपि कयप्पसाए ॥ २ ॥ अङ्गान्येकादश वै,
पूर्वारिण चतुर्दशापि योऽधीते । अध्यापयति परेभ्यः,
पञ्चविंशतिगुरण उपाध्यायः ॥ ३ ॥ श्रीउपाध्यायपद की पहिचान श्रीसिद्धचक्र के नवपदों में प्रथम पद श्रीअरिहन्तपद तथा द्वितीय पद श्रीसिद्धपद- ये दोनों पद देवतत्त्व में गिने जाते हैं। उन्हीं के स्वरूप को सदा स्थायी रखने वाला गुरुतत्त्व है । इसी गुरुतत्त्व में क्रमशः प्रथम और परमेष्ठिपद में तृतीय श्रीप्राचार्य महाराज का संक्षिप्त वर्णन किया। अब गुरुतत्त्व में दूसरे क्रम पर तथा परमेष्ठिपद में चतुर्थ श्रीउपाध्याय महाराज का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
भावाचार्यरूप महाराजा के मन्त्रिपद को दिपाने वाले और मुनिवृन्द को आगम-सिद्धान्त का दान करने वाले
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-६५