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(४) चौदह प्रकार की अभ्यन्तर ग्रन्थियों को तजने वाले
और बावीस प्रकार के उपसर्गों को जीतने वाले, ऐसे आचार्य महाराज छत्तीस (१४+२२=३६ ) गुणों से युक्त हैं।
(५) मुनिवर की बारह प्रकार की पडिमा-प्रतिमा को
वहन करने वाले, बारह प्रकार का तप करने वाले तथा बारह प्रकार की भावना भाने वाले, ऐसे आचार्यदेव छत्तीस (१२+१२+१२=३६ ) गुणों से युक्त हैं।
जो गच्छ के भार को वहन करने में वृषभ के समान हैं तथा इन्द्रियरूपो अश्वों को ज्ञानरूपी डोर से ग्रहण कर वश में करने वाले हैं ऐसे अनेक गुणों से समलंकृत आचार्य भगवन्त सर्वदा वन्दनीय हैं।
आचार्यपद की आराधना
पीतवर्ग से क्यों ? जैसे अरिहन्तपद की आराधना श्वेतवर्ण से और सिद्धपद्ध की आराधना लालवर्ण से होती है, वैसे आचार्यपद की आराधना पीत (पीला ) वर्ण से होती है। पीतवर्ण से होने का कारण यह है कि
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-६०