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________________ बनता है । इसकी व्याख्या इस प्रकार है 'पाड्.-चर् भक्षणे च, चकाराद् गतौ' आचर्यते इति प्राचार्यः । (१) प्रवचन के अभिलाषी शिष्यों के द्वारा जिनकी सेवा की जाती है वे प्राचार्य कहलाते हैं। (२) प्राचार में जो स्वयं साधु हों अर्थात् स्वयं पंचाचार को पालें और दूसरों से भी पालन करावें, वे प्राचार्य कहलाते हैं। (३) मर्यादापूर्वक नवकल्पविहार-पाचार में जो उत्तम हों, वे प्राचार्य कहलाते हैं। (४) चरपुरुष के समान गीतार्थ जो शिष्य वह प्राचार कहलाता है। उसमें जो साधु हो अर्थात् उसके प्रति हितकारी हो, वह प्राचार्य कहलाता है । इस तरह प्राचार्य शब्द की व्याख्या, व्युत्पत्ति और अर्थ होता है। आचार्य के छत्तीस गुण शास्त्र में जिस प्रकार अरिहन्त परमात्मा के बारह गुण और सिद्ध भगवन्त के पाठ गुण बतलाये हैं, उसी प्रकार श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-८६
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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