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________________ तरिऊरण भवसमुइं, रुद्ददुहलहरिलक्खदुल्लंघं । जे सिद्धिसुहं पत्ता ते सिद्धा इंतु मे सरणं ॥१॥ अर्थ- लाखों दुःखोंरूपी लहरों से दुर्लघ्य एवं रौद्र ऐसे संसार रूपी सागर को उत्तीर्ण कर जिन्होंने सिद्धिसुख प्राप्त किया है, उन सिद्ध भगवन्तों का शरण मुझे प्राप्त हो ।। १ ॥ जे भंजिऊरण तवमुग्गरेण, निबिडाई कम्मनिअलाइं। संपत्ता मुक्ख सुहं, ते सिद्धा इंतु मे सरणं ॥२॥ अर्थ- तपरूपी मुद्गर से निबिड़ कर्मरूपी बेड़ियों को भंग कर जिन्होंने मोक्षसुख प्राप्त किया है, उन सिद्धभगवन्तों का शरण मुझे प्राप्त हो ।। २ ।। झारणानलजोगेण, जामोनिदढसयलकम्ममलो। . करणगं व जारण अप्पा, ते सिद्धा इंतु मे सरणं ॥३॥ अर्थ- ध्यानरूपी अग्नि के योग से सकल कर्म मल भस्मीभूत अर्थात् जल जाने से जिनकी आत्मा सुवर्ण जैसी निर्मल हुई है, उन सिद्ध भगवन्तों का शरण मुझे प्राप्त हो ।। ३ ।। जाण न जम्मो न जरा, न वाहिरणो न मरण न वा बाहा । श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-७५
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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