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(३) वेदनीय कर्म के क्षय से प्रात्मा में 'अव्याबाध सुख
गुरण' प्रगट होता है। (४) मोहनीय कर्म के क्षय से प्रात्मा में 'क्षायिक सम्य
क्त्व' और 'अनन्त चारित्र गुण' प्रगट होता है । (५) आयुष्य कर्म के क्षय से प्रात्मा में 'अक्षय स्थिति
(अर्थात् पुनर्जन्म न लेने रूप शाश्वत स्थान) गुरण'
प्रगट होता है। (६) नाम कर्म के क्षय से 'अनन्त अवगाहनयुक्त अमूर्त
गुरण' प्रगट होता है। (७) गोत्र कर्म के क्षय से 'अनन्त अवगाहनायुक्त अगुरु
लघु गुरग' प्रगट होता है । (८) अन्तराय कर्म के क्षय से 'अनन्त आत्मवीर्यादि गुरण'
प्रगट होता है।
श्रीसिद्धभगवन्तों में इन्हीं आठ गुणों की प्रधानता है। ये गुण अपनी प्रात्मा में प्रगट करने के लिए आराधक को श्रीसिद्धभगवन्त की आराधना पाठ भेदों से करनी चाहिए ।
____ जो समस्त कर्म का क्षय करके चौदहवें गुणस्थानक के अन्त में सादि अनन्तवें भागे लोकान्त में स्थित हैं ऐसे श्रीसिद्धभगवन्त के अनेक गुणों का ध्यान करना, द्रव्य-भाव
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-७३