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शान्तिसूरीश्वरजी महाराज ने जीवविचार प्रकरण में कहा है कि --
सिद्धा पनरस-भेया,
तित्था-ऽतित्था-ऽऽइ-सिद्ध-भेएरणं । एए संखेवेणं,
जीव-विगप्पा समक्खाया ॥ २५ ॥ अर्थ- तीर्थ, अतीर्थ इत्यादि भेदों की अपेक्षा सिद्ध पन्द्रह प्रकार के हैं। जीवों के ये भेद संक्षेप में स्पष्ट समझाये हैं । नवतत्त्वप्रकरण में भी श्रीसिद्धभगवन्त के पन्द्रह नाम तथा उनके उदाहरण के नाम भी प्रतिपादित किये हैं - , जिरण अजिरण तित्थऽतित्था, - गिहि अन्न सलिंग थी नर नपुंसा । - पत्तय सयंबुद्धा,
बुद्धबोहिय इक्क-णिक्का य ॥ ५५ ॥ अर्थ-- (१) जिनसिद्ध, (२) अजिनसिद्ध, (३) तीर्थसिद्ध, (४) अतीर्थसिद्ध, (५) गृहस्थलिंगसिद्ध, (६) अन्यलिंगसिद्ध, (७) स्वलिंगसिद्ध, (८) स्त्रीलिंगसिद्ध, (६) पुरुषलिंग सिद्ध, (१०) नपुंसकलिंग सिद्ध, (११) प्रत्येकबुद्ध सिद्ध, (१२) स्वयंबुद्ध सिद्ध, (१३) बुद्धबोधित सिद्ध, (१४) एक सिद्ध, और (१५) अनेक सिद्ध ।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-६७