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अवगाहना में रहते हैं । वहाँ से पुनः अब उन्हें संसार में आने का नहीं और जन्म लेने का नहीं ।
इस प्रकार शरीर-रहित अवस्था में अबाधापने अनन्तकाल पर्यंत रहने वाले अनन्त जीव भूतकाल में इधर पाए हैं, वर्तमानकाल में संख्याबद्ध पाते हैं और भविष्यत्काल में अनन्त आयेंगे । श्रीसिद्धपद को प्राप्त, अक्षय सुख में स्थिर रहे हुए सिद्धात्मा क्रमशः एक समय के केवलज्ञान
और केवलदर्शन के उपयोग में सर्वदा प्रवर्त्तमान हैं अर्थात् समयान्तर केवलज्ञान और केवलदर्शन के उपयोग को अनुभवते हैं । प्रात्मगुणों की अपेक्षा वे सिद्धात्मा अनन्तगुणी कहलाते हैं और वैभाविक गुणों की अपेक्षा वे सिद्धात्मा निर्गुणी अर्थात् गुणरहित कहलाते हैं ।
आत्मसम्बद्ध अष्टकर्म के क्षय से उत्पन्न हुए अनन्तज्ञानादि अाठ गरगों की अपेक्षा से श्रीसिद्धभगवन्त पाठ गुणों के स्वामी कहलाते हैं तथा अष्ट कर्मों के क्रमश: 'पाँच, नव, दो, दो, चार, दो, दो और पाँच' इन उत्तरभेदों के सर्वथा क्षय की अपेक्षा ये सिद्धभगवान इकतीस गुणों के स्वामो भी कहलाते हैं ।
अष्ट कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए अनन्तज्ञानादि अष्ट गुणों से समलंकृत ऐसे श्रीसिद्धभगवन्तों की पहचान-जानकारी सर्वज्ञ श्रीअरिहन्तदेवों को है तथापि वे भी उनका
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-५७