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(४) मुक्त जीव कर्मबन्ध से मुक्त होने के कारण एरण्ड
के बीज के समान ऊपर को जाता है अर्थात् एरण्ड का सूखा बीज जब चटकता है तब उसकी मिंगी जिस प्रकार ऊपर को जाती है उसी प्रकार यह जीव कर्मों के बन्धन दूर होने पर ऊपर को
जाता है। (५) मुक्त जीव स्वभाव से ही अग्नि की शिखा की तरह
ऊर्ध्वगमन करता है । अर्थात् जिस प्रकार हवा के अभाव में अग्नि (दीपक आदि) की शिखा ऊपर को जाती है उसी प्रकार कर्मों के बिना यह जीव भी ऊपर को जाता है और वहाँ सादि अनन्त स्थिति में सदा रहता है। लोक के अन्त में पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाली और शुद्ध स्फटिक के समान स्वच्छ अर्जुन-सुवर्णमयी-सिद्धशिला है। वहाँ से एक योजन लोकान्त है । समस्त कर्म से निर्मुक्त ऐसे श्रीसिद्धात्मा यहीं श्रीसिद्धशिला पर लोक के अन्त में एक योजन के चौबीसवें भाग में अवस्थितपने रहने वाले होते हैं।
इतने स्थान में सभी सिद्धात्मायें लोकाग्र को स्पर्श करके जिस तरह रहा जाता है उसी तरह अपने चरम शरीर की जितनी अवगाहना है उससे तीसरे भाग न्यून
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-५६