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शैलेशीकरण द्वारा प्रथम प्रायुष्यकर्म समाप्त करने के पूर्व समय में अर्थात् द्विचरम समय में कर्म की ७२ प्रकृतियों का क्षय करता है और अन्तिम समय में १३ कर्मप्रकृतियों का क्षय करता है । अनन्तर पाँच ह्रस्वाक्षर काल प्रमाण चौदहवें अयोगी गुणस्थानक का स्पर्श करके कर्मविमुक्त अग्नितप्त सुवर्ण के समान शुद्ध बन कर मोक्ष को प्राप्त करता है। इधर से सदा के लिए अपने देह का सर्वथा त्याग करके एक ही समय में मोक्ष में स्थिर हो जाता है।
श्रीसिद्धपद में प्रतिष्ठित हुए प्रात्मा की अवगाहना, चरमावस्था में जो अवगाहना होती है उससे तीसरे भाग न्यून होती है, अर्थात् त्याग करते हुए देह में जिस तरह
आत्मा रहा है उससे १/३ न्यून अर्थात् २/३ भाग अवगाहना से मोक्ष में शाश्वत रूप में लोकाग्र को स्पर्श करके सर्वदा रहता है।
___ सकल कर्म का सर्वथा क्षय होने के पश्चात् अर्थात् कर्मविमुक्त आत्मा लोक के अन्त भाग पर्यन्त ऊपर को जाता है । उसकी एक समय की क्रिया धनुष में से छूटे हुए बाण को भाँति पूर्वप्रयोग से, तूम्बे की भाँति असंगपने से, एरण्ड वृक्ष के बीज की भाँति बन्धन के छेद से तथा अग्निशिखा की भाँति ऊर्ध्व स्वभाव से हो सकती है । जैसे
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-५४