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प्रायुषः क्षीणभावत्वात्, सिद्धानामक्षया स्थितिः । नाम-गोत्रक्षयादेवाऽ मूर्त्तानन्तावगाहना ॥३॥ सिद्धारणमारणेदरमालयारणं,
नमो नमोऽरणंतचउक्कयारणं । समग्गकम्मख्खयकारगारणं,
जम्मजरादुख्खनिवारगारणं ॥ ४ ॥ दुट्टट्ठकम्मावरणप्पमुक्के,
अनंतनागाइसिरिचउक्के । समग्गलोगग्गपयप्पसिद्धे,
झाएह निच्चपि समग्गसिद्धे ॥ ५॥
श्रीसिद्धपद की पहिचान अनादिकाल से आत्मा के साथ लगे हुए समस्त कर्मों से रहित होकर सर्वथा कृतकृत्य और सिद्धरूप बने हुए, सिद्ध आत्माओं के रहने का जो स्थान, उसी को सिद्धपद कहा जाता है। श्रीअरिहन्तपदरूप बीज का फल यही श्रीसिद्धपद है । इनका स्मरण भी प्रात्मा को अनन्त सुख में निमग्न करने वाला है।
आत्मा अरिहन्तरूप में या सामान्य केवलीरूप में तेरहवें गुणस्थान के समुद्घात बिना या समुद्घातपूर्वक
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-५३