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रौद्ररस प्रधान वाले नायक प्रवेश में आकर युद्ध में लड़ते-लड़ते लालचोल बन जाते हैं । शत्रु को मारने के लिये प्रति धमपछाड़ा करते हैं । कारण कि उनमें क्रोध मुख्य रूप में भाव भजवता है ।
इन दोनों में से श्री अरिहन्त - तीर्थंकर भगवन्त रौद्ररस प्रधान नहीं केवल वीररस प्रधान नायक हैं । उन्हीं में सत्त्व विशेष रूप में काम करता है ।
सत्त्व - वीर्य और ओजस का वर्ण श्वेत है ।
श्री अरिहन्त - तीर्थंकर परमात्मा का भी शुक्ल - श्वेतउज्ज्वल वर्ण है । आगमादिक शास्त्रों में उन्हीं की आराधना श्वेत वर्ण से करने की कही है ।
(३) शुक्लध्यान के चार पाये हैं । उनमें से श्री अरिहन्त - तीर्थंकर भगवन्तों ने दो पायों का ध्यान किया है और दो पायों का ध्यान बाकी है । अर्थात् श्रीमरिहन्त - तीर्थंकर भगवन्त शुक्लध्यान के मध्य में रहे हैं । इस स्थिति का पूर्णरूप में ध्यान प्राराधक व्यक्तियों को अरिहन्त पद की श्वेत - उज्ज्वल वर्ण की आराधना से आता है । इसलिये श्री अरिहन्त - तीर्थंकर भगवन्तों का श्वेत- उज्ज्वल वर्ण कहा गया है ।
(४) जहाँ ध्यान की भूमिका का वर्णन
किया है, वहाँ
श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन - ४८