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(२) नवपद में महत्त्वपूर्ण प्रथम अरिहन्तपद है । 'अरि' का
अर्थ है शत्रु और 'हन्त' का अर्थ है हणनार । शत्र दो प्रकार के हैं। बाह्य और अभ्यन्तर । उसमें से जिसने अभ्यन्तर शत्रों का विनाश किया है वह 'अरिहन्त' कहलाता है । इस पद की आराधना करते हुए आराधक को अपनी प्रात्मा के अन्तर-शत्र ओं का विनाश करने के लिये विशेष प्रयत्न करने होते हैं। केवल बाह्य शत्रों को जोतने में बहादुरी नहीं है किन्तु अभ्यन्तर शत्रुओं का विनाश कर विजय प्राप्त करने में बहादुरी है । इसलिए अरिहन्त पद की आराधना करने वाले आराधक को मोहशत्रु के सामने युद्ध का प्रतिकार करना · पड़ता है ।
.. युद्ध के मैदान में आये हुए नायक दो पद्धति के होते हैं । एक वीर रस प्रधान वाले और दूसरे रौद्र रस प्रधान वाले ।
उसमें वीर रस प्रधान वाले नायक बहुत उकसाने पर भी शान्त रहते हैं, इतना ही नहीं, उनके वदन-मुख पर क्रोध की लालास तक नहीं पाती। उनके नयन और बदन पर प्रोजस्विता जगमगाती है और उनमें सत्य विशेष रूप में काम करता है।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-४७