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आचार्य कुन्दकुन्दकृत बारसअणुवेक्खा और इस ग्रन्थ में विषय और भाषा-शैली की दृष्टि से बहुत समानता देखी जा सकती है। 84.कालकाचार्य ___ पट्टावलियों के अध्ययन से यह परिज्ञात होता है कि कालकाचार्य नाम के तीन आचार्य थे। एक का वीर निर्वाण 376 में स्वर्गवास हुआ था। द्वितीय गर्दभिल्ल को नष्ट करने वाले कालकाचार्य हुए। उनका समय वीर निर्वाण 456 है और तृतीय कालकाचार्य जिन्होंने संवत्सरी महापर्व पंचमी के स्थान पर चतुर्थी को मनाया था, उनका समय वी. नि.993 है।
इन तीन कालकाचार्यो में प्रथम कालकाचार्य जिन्हें श्यामाचार्य भी कहते हैं, उन्होंने पट्टावलियों के अभिमतानुसार प्रज्ञापना की रचना की। किन्तु पट्टावलियों में उनको 23 वाँ स्थान पट्ट-परंपरा में नहीं दिया है। अन्तिम कालकाचार्य प्रज्ञापना के कर्ता नहीं हैं क्योंकि नंदी, जो वीर निर्वाण 993 के पहले रचित है उसमें प्रज्ञापना को आगम सूची में स्थान दिया गया है। परम्परा की दृष्टि से निगोद की व्याख्या करने वाले कालक और श्याम ये दोनों एक ही आचार्य हैं क्योंकि ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। परम्परा की दृष्टि से वीर निर्वाण 335 में वे युगप्रधान हुए और 376 तक वे जीवित रहे। 85.कालिदास के नाटक ___महाकवि कालिदास की गणना चौथी शताब्दी के श्रेष्ठतम् नाटककारों में की गई है। अभिज्ञानशाकुन्तलम्, मालविकाग्निमित्रम् एवं विक्रमोर्वशीयम् ये तीन इनके प्रसिद्ध नाटक हैं। इन तीनों ही नाटकों में कवि कालिदास ने प्राकृत भाषा का बहुलता से प्रयोग किया है। उनके नाटकों में गद्य के लिए शौरसेनी प्राकृत का तथा पद्य के लिए महाराष्ट्री प्राकृत का प्रयोग हुआ है। अभिज्ञानशाकुन्तलम् में दुष्यंत व शकुन्तला की प्रेम कथा वर्णित है। प्रेम व सौन्दर्य की अद्भुत अनुभूति उपस्थित करने वाला यह नाटक तत्कालीन राजनैतिक एवं सामाजिक जीवन की मर्मस्पर्शी झांकी भी प्रस्तुत करता है। विभिन्न प्राकृत भाषाओं के प्रयोग की दृष्टि से राजा का साला शौरसेनी में बोलता
प्राकृत रत्नाकर 061