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वन्दन-प्रतिक्रमण आदि से संबंधित 17 कथायें हैं। इस कथाकोश का उद्देश्य यह है कि अच्छा साधु और अच्छा श्रावक वही है जो अपने-अपने व्रतों में निष्णात है। बिना अच्छा श्रावक बने कोई भी अच्छा श्रमण नहीं बन सकता है। जो अणुव्रतों का पालन कर सकता है वही महाव्रतों का पालन कर सकता है। सुश्रावक के सामान्य गुण 33 हैं जिनमें सम्यग्दृष्टि और उसके आठ अतिचार, धर्म में श्रद्धा, देवमन्दिर और मुनिसंघ की श्रद्धापूर्वक सहायता करना और करुणा, दया आदि मानवीय वृत्तियों का पोषण करना समाविष्ट हैं। विशेष गुण 17 हैं जिनमें पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत, संवरण, आवश्यक और दीक्षा समाविष्ट हैं। इन गुणों के महत्त्व को प्रकाशित करनेवाली कथाएँ ही इस कथाकोश में दी गई हैं।
यह कथाकोश अधिकांश प्राकृत पद्यों में ही लिखित है, कहीं-कहीं कुछ अंश गद्य में भी दिये गये हैं। बीच-बीच में संस्कृत और अपभ्रंश के पद्य भी दिये गये हैं। कथाओं द्वारा धार्मिक और औपदेशिक शिक्षा देना ही इस कथाकोश का प्रधान लक्ष्य है। ग्रन्थ का परिमाण 12300 श्लोक-प्रमाण है । इस कथाकोश की सभी कथाएँ रोचक हैं । उपवन, ऋतु, रात्रि, युद्ध, मशान, राजप्रासाद, नगर आदि के सरस वर्णनों के द्वारा कथाकार ने कथा-प्रवाह को गतिशील बनाया है। इन कथाओं में सांस्कृतिक महत्त्व की बहुत सामग्री है। नागदत्तकथानक में कुलदेवता की आराधना के लिए उठाये गये कष्टों से उस काल के रीति-रिवाजों तथा नायक के चरित्र और वृत्तियों पर प्रकाश पड़ता है। सुदत्तकथा में गृहकलह का प्रतिपादन करते हुए सास, बहू, ननद और बच्चों के स्वाभाविक चित्रणों में कथाकार ने पूरी कुशलता प्रदर्शित की है। सुजसश्रेष्ठी और उसके पुत्रों की कथा में बाल-मनोविज्ञान के अनेक तत्त्व चित्रित हैं। धनपाल और बालचन्द्र की कथा में वृद्धा वेश्या का चरित्र-चित्रण सुन्दर हुआ है। 82.कथावलि • प्राकृत कथाओं का एक विशाल ग्रंथ है जिसे अभयदेवसूरि के गुरु भद्रेश्वरसूरि ने लिखा है। भद्रेश्वर का समय ईसवी सन् की 12वीं शताब्दी का मध्य माना जाता है। इस ग्रन्थ में त्रिषष्टिशलाका पुरुषों का जीवनचरित संग्रहित
प्राकृत रत्नाकर 059