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और प्रदेश बंध सम्बन्धी विशेषताओं का विवेचन किया गया है। अतः इसका दूसरा नाम पेजदोसपाहुड भी प्रचलित है। यह ग्रन्थ 233 गाथा सूत्रों में विरचित है। ये सूत्र गूढार्थ आध्यात्मिक रहस्यों को अपने में समेटे हुए हैं । इस ग्रन्थ में 15 अधिकार हैं1. पेज्जदोसविभक्ति 2. स्थितिविभक्ति 3. अनुभागविभक्ति 4. प्रदेशविभक्ति - झीणाझीणस्थित्यन्तिक 5.बन्धक अधिकार 6.वेदक अधिकार 7. उपयोग अधिकार 8. चतुःस्थान अधिकार 9.व्यंजन अधिकार 10. दर्शनमोहोपशमना 11. दर्शनमोहक्षपणा 12. संयमासंयमलब्धि 13. संयमलब्धि अधिकार 14. चारित्रमोहोपशमना 15. चारित्रमोहक्षपणा।
इनमें प्रारम्भ के आठ अधिकारों में संसार के कारणभूत मोहनीय कर्म की और अन्तिम सात अधिकारों में आत्म-परिणामों के विकास से शिथिल होते हुए मोहनीय कर्म की विविध दशाओं का वर्णन है। मोहनीय कर्म किस स्थिति में किस कारण से आत्मा के साथ सम्बन्धित होते हैं और उस सम्बन्ध का आत्मा के साथ किस प्रकार सम्मिश्रण होता है, किस प्रकार उनमें फलदानत्व घटित होता है, और कितने समय तक कर्म आत्मा के साथ लगे रहते हैं, इसका विस्तृत और स्पष्ट विवेचन इस ग्रन्थ में हुआ है। मोहनीय कर्म में दर्शन-मोहनीय एवं चारित्र-मोहनीय दोनों ही गर्भित हैं। मोहनीय कर्म का इतना सूक्ष्मतम एवं मौलिक विवेचन अन्यत्र दुर्लभ है।
आचार्य यतिवृषभ ने इस ग्रन्थ पर 6,000 श्लोक-प्रमाण पाहुडचुण्णिसुत्त नामक चूर्णि की रचना की है, जिसमें राग-द्वेष का विशेष विवेचन अनुयोगद्वारों के आधार पर किया गया है। कषायपाहुड पर आचार्य वीरसेन और उनके शिष्य जयसेन ने जयधवला टीका लिखी। 20,000 श्लोक-प्रमाण लिखने के पश्चात् आचार्य वीरसेन स्वर्गवासी हो गये। तब उनके शिष्य आचार्य जिनसेन ने अवशिष्ट भाग पर 40,000 श्लोक-प्रमाण लिख कर ई. सन् 837 में इस टीका ग्रन्थ को पूरा किया।
56 0 प्राकृत रत्नाकर