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________________ मा कहं पिवअणेण विब्भमो होउ इति तुह णुणामिन्दुणा । लांछणच्छलमसीविसेसओ पेच्छ बिम्बफलये णिए कओ ।। (3.32 ) अर्थात् - निश्चय ही तुम्हारे मुख से लोगों को (चन्द्रमा की ) भ्रान्ति न हो जाए, इसलिए देखो ! चन्द्रमा के द्वारा अपने चन्द्र बिम्ब में मृगचिन्ह के बहाने काला धब्बा धारण कर लिया गया है। वस्तु-वर्णन में अनुप्रास माधुर्य एवं ज्ञेयता का समावेश इस प्रकार हुआ है कि वर्ण्य विषय का चित्र आँखों के सामने प्रत्यक्ष उपस्थित हो जाता है। झूला झूलती कर्पूरमंजरी का यह चित्र दृष्टव्य है - रणन्तमणिणेउरं झणझणंतहारच्छडं कलक्कणिदकिडिणीमुहरमेहलाडम्बरं । विलोलवलआवलीजणिदमंजुसिंजारवं ण कस्स मणमोहणं ससिमुही अहिन्दोलणं ? ॥ (2.32 ) अर्थात् - रत्ननिर्मित नूपुरों की झंकार से युक्त, मुक्ताहारों की झनझनाहट से परिपूर्ण, कटिसूत्र ( करधनी) की घण्टियों की मनोहर आवाज से युक्त, चंचल कंगनों की पंक्ति से उत्पन्न हुए सुन्दर शब्दों से युक्त, यह चन्द्रमुखी कर्पूरमंजरी के झूलने की क्रिया किसके मन को नहीं मोह लेती है, अर्थात् सभी के मन को आकर्षित कर रही है । 72. कर्मप्रकृति (कम्मपयडि ) कर्मप्रकृति के लेखक आचार्य शिवशर्म हैं, जिनका समय अनुमानतः विक्रम की 5 वीं शताब्दी माना गया है। इसमें 425 गाथाओं में बंधन, संक्रमण, उद्धर्तन, अपवर्तन, उदीरणा, उपशमना, निधत्ति और निकाचना इन आठ करणों एवं उदय और सत्ता का विवेचन है । इस पर टीका लिखी है। यह ग्रंथ मलयगिरिकृत वृत्तिसहित देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार बंबई 1912, मलयगिरि एवं यशोविजयवृत्ति सहित जैनधर्मसभा प्रसारक भावनगर 1917, चूर्णी तथा मलयगिरि और यशोविजय कृत वृत्तियों सहित मुक्ताबाई ज्ञानमंदिर, डभोई द्वारा सन् 1937 में प्रकाशित है। मूल संस्कृत छाया और गुजराती अनुवाद के साथ माणेकलाल चुनीलाल की ओर से सन् 1938 में प्रकाशित है। जिनरत्नकोश में कर्म प्रकृति नाम के आठ ग्रन्थों का निर्देश मिलता है । 52 0 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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