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आमुख
प्राकृतभाषा एवं साहित्य के विषय में विगत सौ वर्षों में अनेक पुस्तकें निबन्ध एवं शोधपत्र आदि प्रकाशित हुए हैं। किसी में प्राकृत भाषा का विवेचन है, किसी में प्राकृत व्याकरण का। कोई ग्रन्थ प्राकृत साहित्य के किसी आचार्य या ग्रन्थकार का विवरण देता है तो कोई ग्रन्थ किन्हीं प्राकृत लाक्षणिक ग्रन्थों का। प्राकृतभाषा के कई ग्रन्थों का सम्पादन हुआ है। कुछ मूलरूप में प्रकाशित हुए हैं, कुछ प्राकृत ग्रन्थों का अनुवाद भी हुआ है। प्राकृत भाषा एवं साहित्य के विषय में डॉ. जगदीशचन्द्र जैन और डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री के इतिहास ग्रन्थ भी 50-60 वर्ष पूर्व प्रकाशित हुए हैं। प्राकृत भाषा एवं साहित्य के विषय में जानकारी के लिए ये दोनों ग्रन्थ आधारस्वरूप हैं।
जैन साहित्य के इतिहास विषय को लेकर वाराणसी से सात-आठ भाग भी प्रकाशित हुए हैं, जिनमें प्राकृत साहित्य के ग्रन्थों की जानकारी दी गयी है। प्राकृत ग्रन्थों के विषय में पीएच.डी. के शोधप्रबन्ध भी लिखे गए हैं, जिनमें से कुछ ही प्रकाशित हुए हैं। इतना सब होते हुए भी कोई ऐसा कोश ग्रन्थ नहीं है, जिसमें प्राकृत एवं साहित्य के ग्रन्थों और ग्रन्थकारों, प्राकृत भाषाओं, प्राकृत संस्थाओं, प्राकृत विद्वानों आदि के विषय में जानकारी मिल जाए। इसी आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए परमपूज्य जगत्गुरु, कर्मयोगी, स्वस्तिश्री चारुकीर्ति भट्टारक स्वामी जी की प्रेरणा से श्रवणबेलगोला में इस 'प्राकृत रत्नाकर' ग्रन्थ तैयार करने की रूपरेखा बनी। लगातार तीन वर्षों के अथक श्रम से यह ग्रन्थ लिखा गया। परमपूज्य राष्टसन्त श्वेतपिच्छधारी आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने इस ग्रन्थ का अवलोकन कर आशीर्वाद दिया, यह मेरा सौभाग्य है। उन्हें सादर नमोस्तु।
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