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उनका विस्तार वृत्ति में किया गया है। इनमें से कुछ कथाएँ पुराने ग्रन्थों में मिलती हैं तथा कुछ ग्रन्थकार द्वारा कल्पित हैं। इस ग्रन्थ की कथाएँ बड़ी ही सरस एवं सुन्दर है। इन कथाओं के माध्यम से कर्म सिद्धान्त की सर्वव्यापकता की सुन्दर प्रतिष्ठा की है। प्रत्येक प्राणी के वर्तमान जन्म की घटनाओं का कारण उसके पूर्वजन्म के कृत्यों को माना है। जन्म-परम्परा एवं प्रत्येक भव के सुख-दुःख में कारण एवं कार्य के सम्बन्ध को समझाते हुए व्रताचरण के पालन पर बल दिया है। इन कथाओं के माध्यम से जिनपूजा, जिनस्तुति, वैयावृत्य, धर्मउत्साह की प्रेरणा, साधु-दान आदि का फल बड़ी ही सरल एवं सुन्दर शैली में प्रतिपादित किया गया है। भाषा सरल एवं बोधगम्य है। कहीं-कहीं अपभ्रंश के पद्य भी हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से यह कथा-ग्रन्थ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्व, धातुवाद, रसवाद और अर्थशास्त्र आदि के विषय में इसमें महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ उपलब्ध हैं।
यह ग्रन्थ सामान्य श्रोताओं को लक्ष्य में रखकर बनाया गया है। इसके प्रारंभ की 7 कथाओं में जिन भगवान् की पूजा का फल, 8वीं में जिनस्तुति का फल, 9वीं में साधुसेवा का फल, 10-25वीं तक 16 कथाओं में दानफल, इसके आगे 3 कथाओं में जैनशासन-प्रभावना का फल, 2 कथाओं में मुनियों के दोष दिखाने का कुफल, 1 कथा में मुनि-अपमान-निवारण का सुफल, 1 कथा में जिनवचन पर अश्रद्धा का कुफल, 1 कथा में धर्मोत्साह प्रदान करने का सुफल, 1 कथा में गुरुविरोध का फल, 1 में शासनोन्नति करने का फल तथा अन्तिम कथा में धर्मोत्साह प्रदान करने का फल वर्णित है। 71. कप्पूरमंजरी ___ कर्पूरमंजरी प्राकृत सट्टक परम्परा का प्रतिनिधि सट्टक है। इसके रचयिता 10वीं शताब्दी के कविराज यायावरवंशीय राजशेखर हैं । राजशेखर ने कर्पूरमंजरी की चार जवनिकाओं में राजा चन्द्रपाल एवं कर्पूरमंजरी की प्रणय कथा निबद्ध की है। कथावस्तु पूर्णरूप से काल्पनिक है। राजा चन्द्रपाल के द्वारा अद्भुत दृश्य देखने का अनुरोध करने पर योगी भैरवानंद अपनी योग शक्ति से विदर्भ की
500 प्राकृत रत्नाकर