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70. कथाकोश प्रकरण (कहाणयकोस )
कथाकोषप्रकरण वर्धमानसूरि के शिष्य सुप्रसिद्ध श्वेतांबर आचार्य जिनेश्वरसूरि की रचना है जिसे उन्होंने वि.स. 1108 (सन् 1051) में लिखकर समाप्त किया था । सुरसुंदरीचरियं के कर्ता धनेश्वर, नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि, संवेगरंगशाला आदि के प्रणेता जिनचन्द्रसूरि, आदिनाथचरित आदि के रचयिता वर्धमानसूरि और महावीरसूरि के शिष्य प्रशिष्यों में हैं जिन्होंने बड़े आदरपूर्वक उनका स्मरण किया है । सोमतिलकसूरि में अपनी धनपालकथा में जिनेश्वरसूरि की साहसिकता और कार्य तत्परता की तुलना शिवजी के उन भक्तों से की है जो अपने कंधों में गड्ढे बनाकर उनमें दीपक जलाते हुए प्रयाण करते हैं। जिनेश्वरसूरि ने दूर-दूर तक भ्रमण किया था और विशेषकर गुजरात, मालवा और राजस्थान इनकी प्रवृत्तियों के केन्द्र थे । इन्होंने और भी अनेक प्राकृत और संस्कृत के ग्रंथों की रचना की है जिनमें हरिभद्रकृत अष्टक पर वृत्ति चैत्यवन्दनविवरण, षट्स्थानकप्रकरण (अथवा श्रावकवक्तव्यता ), पंचलिंगीप्रकरण, लीलावतीकथा (अथवा निर्वाणलीलावतीकथा) आदि मुख्य
है।
कहारयणकोस में कुल 30 गाथायें हैं और इनके ऊपर प्राकृत में टीका है जिसमें 36 मुख्य और 4-5 अवांतर कथायें हैं । ये कथायें प्राय: प्राचीन जैन ग्रन्थों से ली गई हैं जिन्हें लेखक ने अपनी भाषा में निबद्ध किया है। कुछ कथायें स्वयं जिनेश्वरसूरि की लिखी हुई मालूम होती हैं। जिनपूजा, साधुदान, जैनधर्म में उत्साह आदि का प्रतिपादन करने के लिये इन कथाओं की रचना की गई है। इन कथाओं में तत्कालीन समाज, आचार-विचार, राजनीति आदि का सरस वर्णन मिलता है। कथाओं की भाषा सरल और बोधगम्य हैं, समासपदावली, अनावश्यक शब्दाडंबर और अलंकारों का प्रयोग यहाँ नहीं है । कहीं अपभ्रंश के भी पद्म हैं, जिनमें चउप्पदिका (चौपाई) का उल्लेख है । जिनेश्वरसूरि के कथाकोषप्रकरण के सिवाय और भी कथाकोष प्राकृत में लिखे गये हैं। अनेक कथारत्नकोशों की रचना हुई है ।
मूल कथा-ग्रन्थ की 30 प्राकृत गाथाओं में जिन कथाओं के नाम निर्दिष्ट हैं,
प्राकृत रत्नाकर 049