________________
410. श्रावकप्रज्ञप्ति (सावयपण्णति )
यह रचना उमास्वामि की कही जाती है । कोई इसे हरिभद्रकृत मानते हैं इनमें 401 गाथाओं में श्रावकधर्म का विवेचन है ।
411. श्रावकधर्म विधि (सावयधम्मविहि )
यह रचना हरिभद्रसूरि की है। मानदेवसूरि ने इस पर विवृत्ति लिखी है। 120 गाथाओं में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का वर्णन करते हुए यहाँ श्रावकों की विधि का प्रतिपादन किया है।
412. श्रीचन्द्रसूरि
प्राकृत ग्रन्थ सनत्कुमारचरित के रचयिता श्रीचन्द्रसूरि हैं जो चन्द्रगच्छ में सर्वदेवसूरि के सन्तानीय जयसिंहसूरि के शिष्य देवेन्द्रसूरि के शिष्य थे । प्रणेता ने अपने गुरुभाई के रूप में यशोभद्रसूरि, यशोदेवसूरि और जिनेश्वरसूरि का नाम दिया है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में कवि ने हरिभद्रसूरि, सिद्धमहाकवि अभयदेवसूरि, धनपाल, देवचन्द्रसूरि, शान्तिसूरि, देवभद्रसूरि और मलधारी हेमचन्द्रसूरि की कृतियों का स्मरण कर उनकी गुणस्तुति की है। श्री चन्द्रसूरि ने उक्त ग्रन्थ की रचना अणहिलपुर (पाटन) में कर्पूर पट्टाधिपपुत्र सोमेश्वर के घर के ऊपर भाग में स्थित वसति में रहकर वहाँ के कुटुम्ब वालों की प्रार्थना पर की थी । इसकी रचना सं. 1214 आश्विनवदी 7 बुधवार को हुई थी। इसकी प्रथम प्रति हेमचन्द्रगणि ने लिखी थी। 413. षट्खण्डागम
शौरसेनी आगम ग्रन्थ षट्खण्डागम के छः खण्ड हैं। प्रथम खण्ड जीवद्वाणं में आठ अनुयोगद्वार तथा नौ चूलिकाएँ हैं, जिसमें गुणस्थान एवं मार्गणाओं का आश्रय लेकर जीव की नाना अवस्थाओं का निरूपण हुआ है। यह भी चिंतन किया गया है कि कौन जीव किस प्रकार से सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र को प्राप्त कर सकता है। द्वितीय खण्ड खुदाबंध के 11 अधिकारों में केवल मार्गणास्थानों के अनुसार कर्मबंध करने वाले जीव का वर्णन है। तृतीय खण्ड बंधसामित्तविचय में गुणस्थान एवं मार्गणास्थान के आधार पर कर्मबंध करने वाले जीव का निरूपण किया गया है । किन कर्मप्रकृतियों के बंध में कौन जीव स्वामी है और कौन जीव
350 प्राकृत रत्नाकर