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ऋग्वेद की रचना की गई। यही नहीं, बल्कि उनके अनुसार “आदि प्राकृत से विकसित उक्त छान्दस् से भी परवर्ती युगों में दो साहित्यिक भाषाओं का विकास हुआ- लौकिक-संस्कृत एवं साहित्यिक प्राकृत । आगे चलकर नियमबद्ध हो जाने के कारण लौकिक संस्कृत का प्रवाह तो अवरुद्ध हो गया, जबकि प्राकृत का प्रवाह बिना किसी अवरोध के आगे चलता रहा, जिससे क्रमशः अपभ्रंश-भाषा तथा उस अपभ्रंश से ब्रज, हिन्दी, मैथिली, भोजपुरी, बंगला, उड़िया, बुन्देली आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ।" 36. आचारदशा (आयारदसाओ)
दशश्रुतस्कन्ध का ठाणांग में दूसरा नाम आचारदशा भी प्राप्त होता है। इसके दस अध्ययन हैं, जिनमें दोषों से बचने का विधान है। पहले उद्देशक में 20 असमाधि दोष, दूसरे उद्देशक में 21 शबल दोष, तीसरे उद्देशक में 33 प्रकार की आजोतनाओं, चौथे उद्देशक में 8 प्रकार की गणिसंपदाओं, पाँचवें उद्देशक में 10 प्रकार की चित्तसमाधि, छठे उद्देशक में 11 प्रकार की उपासक प्रतिमाओं, सातवें उद्देशक में 12 प्रकार की भिक्षु प्रतिमाओं, आठवें उद्देशक में पर्युषणा, नवें में 30 महा-मोहनीय स्थानों एवं दसवें उद्देशक में नव-निदानों का वर्णन है। इस आगम के आठवें उद्देशक पर्युषणा में महावीर का जीवन चरित विस्तार से वर्णित हुआ है। यह अध्ययन विकसित होकर वर्तमान में कल्पसूत्र के नाम से जाना जाता है। 37. आदिनाहचरियं
ऋषभदेव के चरित का विस्तार से वर्णन करने वाला प्राकृत का यह प्रथम ग्रन्थ है। इसमें पाँच परिच्छेद हैं। ग्रन्थ 11000 श्लोकप्रमाण है। इस ग्रन्थ का दूसरा नाम ऋषभदेवचरित भी है। इसकी रचना पर चउप्पन्नमहापुरिसचरियं का प्रभाव है। इसके रचयिता नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के शिष्य वर्धमानाचार्य हैं। इनकी दूसरी रचनाएँ 15000 गाथा-प्रमाण मनोरमाचरियं (सं.1140) तथा धर्मरत्नकरंडवृत्ति (सं.1172) भी हैं। आदिनाहचरियं का रचनाकाल सं. 1160 दिया गया है।
260 प्राकृत रत्नाकर