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________________ भाषा की दृष्टि से पुनर्मूल्यांकन करना होगा । इस देश में भारतीय आर्यभाषा के रूप में संस्कृत के साथ प्राकृत को भी सदैव स्मरण किया गया है। जन-सामान्य में संस्कृत- प्राकृताभ्यां यद् भाषाभ्यामन्वितं शुभम् । मंत्रर्थवर्णनत्यात्र कियते कामधुड. मया ।। वाराहीसंहिता से ज्ञात होता है कि सप्तर्षि भी प्राकृत बोलते थे । प्राचीन वैयाकरण आचार्य पाणिनि भी स्वीकारते हैं कि स्वयंभू ब्रह्मा संस्कृत एवं प्राकृत दोनों का प्रयोग करते थे। -संस्कृते प्राकृते चापि स्वयं प्रोक्ता स्वयंभुवा । 386. वैदिकयुगीन बोलियाँ (विभाषाएँ) प्राचीन भारत में आर्य-संस्कृति का विकास पश्चिम से पूर्व की ओर माना गया है। वैदिक युग में जिन-जिन भाषाओं का अधिक प्रचार था, भाषाविदों ने उन्हें तीन वर्गों में विभक्त किया है- (क) उदीच्चा या उत्तरीय विभाषा (ख) मध्यदेशीय विभाषा एवं (ग) प्राच्या या पूर्वीय विभाषा । आर्यों का प्राथमिक सम्पर्क भारत के उत्तर-पश्चिम भूभाग से हुआ था । वहाँ पर उन्होंने अपनी बौद्धिक क्षमताओं का अधिक विकास किया। फलस्वरूप उत्तर-पश्चिम क्षेत्र की जन-प्रचलित विभाषा उदीच्चा अधिक व्यवस्थित और परिनिष्ठित हो गई। इसी विभाषा में वैदिक साहित्य का प्रमुख भाग रचा गया। बाद में यहीं पर महर्षि पाणिनी ने भाषा को संस्कारित कर अष्टाध्यायी लिखी, जो लौकिक संस्कृत भाषा का आधार ग्रन्थ बना। वैदिक युग की 'छान्दस' भाषा और यह उदीच्चा विभाषा साहित्यिक- भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई । किन्तु उनमें अन्य जनबोलियाँ प्राकृत के तत्त्व भी समाहित होते रहे। पूर्वी उत्तर भारत और बिहार वैदिक युग में अधिक विकसित क्षेत्र नहीं थे। वहाँ की प्राच्या विभाषा मध्यदेशीय विभाषा के सम्पर्क के कारण थी तो प्राकृत ही, किन्तु उसका प्रयोग बोलचाल में ही था, साहित्यिक भाषा पर वह प्रतिष्ठित नहीं थी । उदीच्या वाले प्राच्या को विकृत विभाषा समझते थे । प्राच्या बोलने वालों को वे अपने से भिन्न एवं असंस्कारित मानते थे । प्राच्या प्रयोगी जन भी यज्ञीय संस्कृति के पक्षपाती नहीं थे। वे संयमपूर्ण आचरण को ही अपना धर्म मानते थे। प्राकृत रत्नाकर 0 331
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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