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________________ (घ) दाणिं हनति भेदिति मरते गच्छहि पाहि कर चर मुंच 330 प्राकृत रत्नाकर इस समय जहाँ मारता है भेदता है मरता है जाओ पिओ करना चलना छोड़ना दाणिं जहि हनति, हणइ भेदति गच्छि गच्छ पाहि कर चर मुंच इसी तरह प्राकृत एवं वैदिक भाषा के संधि-रूपों में भी समानताएँ देखने को मिलती हैं। कृदन्त दोनों में समान हैं। इस तरह ये कुछ नमूने के तौर पर ये विशेषताएँ हैं जिनकी ओर विद्वानों की दृष्टि जानी चाहिये। इससे यह स्पष्ट है कि वैदिक भाषा और प्राकृत किसी एक मूल जनभाषा के धरातल पर ज्ञान करना आवश्यक है। अतः प्राकृत भाषा का अध्ययन और पठन-पाठन प्राचीन भारतीय आर्यभाषा वैदिक भाषा के लिए कितना उपयोगी है, यह स्वयं समझा जा सकता है। प्राकृत भाषा के व्याकरण संबंधी नियम स्वतंत्र आधार को लिये हैं तथा जनभाषा में प्रयोगों की बहुलता को भी प्राकृत ने सुरक्षित रखा है। प्राकृत ने अपने इन्हीं तत्वों के अनुरूप कुछ ऐसे नियम निश्चित कर लिये जिनसे वह किसी भी भाषा के शब्दों को प्राकृत रूप देकर अपने में सम्मलित कर सकती है। यह प्राकृत भाषा की सजीवता और सर्वग्राह्यता कही जा सकती है। इसी प्रवृत्ति का प्रयोग करते हुए प्राकृत कवियों ने अपने काव्य साहित्य को विभिन्न शब्द-भंडारों कैसे समृद्ध किया है। कोई भी प्रवाहमान भाषा प्राकृत की इस प्रवृत्ति से अछूती नहीं है। वैदिक युग से महावीर युग तक प्रचलित प्राकृत भाषा के स्वरूप को पुनजीर्वित करने के लिए एक ओर वैदिक भाषा में प्रयुक्त प्राकृत तत्वों की गहरायी से खोजबीन करनी होगी तो दूसरी ओर इस अवधि के अन्य-उपलब्ध साहित्य का
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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