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________________ बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक में अपभ्रंश भाषा के क्षेत्र में विदेशी विद्वान् तिश्योशी नारा का कार्य महत्वपूर्ण है। सन् 1963 में उन्होंने शार्टनिंग आफ द फाइनल वावेल आफ इन्स्ट सीग एन एण्ड फोनोलोजी आफ द लेंग्वेज इन सरह दोहा नामक निबन्ध प्रकाशित किया। 1964 ई. में ए स्टडी आफ अवहट्ट एण्ड प्रोटोबेंगाली विषय पर कलकत्ता विश्वविद्यालय से आपका शोध-प्रबन्ध स्वीकृत हुआ। इसके बाद भी अपभ्रंश पर आपका अध्ययन गतिशील रहा। 1965 ई. में अपभ्रंश एण्ड अवहट्ट - प्रोटो न्यू इंडो आर्यन स्टेजेज नामक निबन्ध आपके द्वारा प्रस्तुत किया गया। विदेशों में 1970 से 2010 तक किए गये प्राकृतअपभ्रंश विषयक अध्ययन का प्रामाणिक विवरण तैयार किया जाना चाहिए । इससे अनेक विदेशी विद्वानों की प्राकृत- सेवा का ज्ञान हो सकेगा। 377. विपाकसूत्र ( विवागसुयं ) अर्धमागधी के अंग ग्रन्थों में विपाकसूत्र का ग्यारहवाँ स्थान है । विपाक का अर्थ है- फल या परिणाम | यह आगम दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है- (1) सुख विपाक (2) दुःख विपाक । इनमें प्राणियों द्वारा किये गये सुकृत और दुष्कृत कर्मों के फल को दिखाने के लिए 20 कथाएँ आई हैं। इन कथाओं के माध्यम से यही समझाने का प्रयास किया गया है कि जिन जीवों ने पूर्वभवों में विविध पापकृत्य किए हैं, उन्हें आगामी जीवन में दारुण वेदनाएँ प्राप्त हुईं तथा जिन्होंने पूर्वभवों में सुकृत किये उन्हें पुण्य स्वरूप सुख उपलब्ध हुआ। कर्म सिद्धान्त जैन दर्शन का मुख्य सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त का दार्शनिक विशेषण तो इस ग्रन्थ में नहीं मिलता है, किन्तु कथाओं के माध्यम से कर्मसिद्धान्त का जिस प्रकार सूक्ष्म व सम्यक् प्रतिपादन किया गया है, वह असाधारण है। प्रथम श्रुतस्कन्ध दुःख विपाक के दस अध्ययनों में अशुभ कर्मों का फल दिखाने के लिए मृगापुत्र, उज्झित, अभग्गसेन, शकट, वृहस्पतिदत्त, नंदीवर्धन, उम्बरदत्त, शौर्यदत्त, देवदत्ता व अंजुश्री के कथानक वर्णित हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध सुखविपाक में शुभकर्मों का फल दिखाने हेतु सुबाहु, भद्रनन्दी, सुजातकुमार, सुवासवकुमार, जिनदास, धनपति, महाबल, भद्रनन्दीकुमार, महाचन्द्र कुमार और वरदत्त कुमार के कथानक वर्णित हैं। आयुर्वेद की दृष्टि से यह शास्त्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसमें नाना व्याधियों के औषध व उपचार का वर्णन हुआ है। विपाकसूत्र मूलतः मानव जीवन की यात्रा के 322 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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