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________________ सदा ही अत्यन्त पूज्य माना जाता रहा है। मूलाचार के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि पांचवें श्रुतकेवली आ. भद्रबाहु के समय जो दुर्भिक्ष पड़ा था, उसके प्रभाव से साधुओं के आचार-विचार में जो शिथिलता आयी, उसे देखकर ही मानो आ. वट्टकेर ने श्रमणों को अपने आचार-विचार एवं व्यवहार आदि की विशुद्धता का समय एवं व्यवस्थित ज्ञान कराने हेतु बारह अंग-ग्रन्थों में अपने सामने उपस्थित प्रथम अंग ग्रन्थरूप मूल आचारांग का उद्धारकर प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की है। जैसा कि आचार्य वसुनन्दि ने भी इसकी आचारवृत्ति तथा आचार्य सकलकीर्ति ने मूलाचार प्रदीप नामक ग्रन्थ के प्रारम्भिक मंगलाचरण की भूमिका में भी सूचित किया है। आचार्य वीरसेन रचित षट्खण्डागम की धवला टीका में भी मूलाचार को आचारांग नाम से उल्लिखित किया ही है। इसी कारण इस ग्रन्थ का नाम मूलाचार पड़ा और तदानुसार श्रमणसंघ का प्रवर्तन कराने से उनके संघ का नाम भी मूलसंघ प्रचलित ज्ञात होता है। मूलाचार अपने विषय का एक अप्रतिम ग्रन्थ है। इसके रचयिता को वसुनन्दि ने आचार्यवर्य कहा है। वर्तमान में इनकी यही एक मात्र कृति उपलब्ध है। पर मूलाचार के अध्ययन से ज्ञात होता है कि सारसमय नामक ग्रन्थ भी इनकी अन्य कृति भी हो सकती है। जिसका मूलाचार में भी इन्होंने उल्लेख किया है। पर यह अभी तक अनुपलब्ध है। मूलाचार के अतिरिक्त सारसमय ग्रन्थ का उल्लेख अन्यत्र नहीं पाया जाता इससे प्रतीत होता है कि सारसमय ग्रन्थ भी आचार्य वट्टकेर की रचना हो सकती है, जिसमें उन्होंने कहा है कि पुव्वसारसमए भणिदा दुगदीगदी मया किंचिं - अर्थात् इसी प्रकार का गति-अगति का कुछ वर्णन मेरे (वट्टकेर के द्वारा) सारसमय नामक ग्रन्थ में किया गया है। इस तरह आचार्य वट्टकेर ने इसी विषय के कथन का संकेत अपने सारसमय नामक ग्रन्थ में करके उसका मूलाचार में उल्लेख किया। डॉ. फूलचन्द्र जैन ने अपने शोध का यह निष्कर्ष दिया है कि मूलाचार के गहन अध्ययन से आचार्य वट्टकेर का बहुश्रुत व्यक्तित्व प्रतिभासम्पन्न एवं उत्कृष्ट चारित्रधारी आचार्य के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होता है। ग्रन्थ का अध्ययन करते-करते ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य वट्टकेर मूलसंघ की 312 0 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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