SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पत्ते पियपाहुणए मंगलवलयाइ विक्किणन्तीए । दुग्गयघरिणी कुलबालियाए रोवाविओ गामो ॥... (गा. 458) अर्थात् - किसी प्रिय अतिथि के आ जाने पर कुल की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए अपने विवाह का मंगल कंकण बेचती हुई गरीब गृहिणी द्वारा सारा गाँव ही रुला दिया गया । उपर्युक्त गाथा में नारी के आदर्श रूप की प्रस्तुति के साथ दरिद्रता एवं विवशता का भी हृदयस्पर्शी चित्र अंकित हुआ है। प्रकृति चित्रण से सम्बन्धित विविध गाथाओं का संकलन भी इस मुक्तककाव्य में हुआ है । छ: ऋतुओं का नैसर्गिक चित्रण है। स्पष्ट है कि वज्जालग्ग जीवन के विविध आयामों का सशक्त प्रस्तुतीकरण करने वाला काव्य है। इसमें आदर्शवादी काव्यों से ऊपर उठकर कवि ने समाज का यथार्थ चित्रण करते हुए मानवीय मूल्यों की स्वाभाविक प्रतिष्ठा की है। 363. वट्टकेर आचार्य शौरसेनी प्राकृत के प्राचीन आचार्यों में मूलाचार के रचयिता वट्टकेर का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रारम्भ में आचार्य कुन्दकुन्द का ग्रन्थ ही मूलाचार मान लिया गया था, क्योंकि वट्टकेर को उनका उपनाम अनुमानित किया गया था किन्तु अब विद्वानों ने गहन अध्ययन के बाद यह स्पष्ट कर दिया है कि वट्टकेर स्वतंत्र आचार्य हुए हैं। वट्टकेर का समय आचार्य कुन्दकुन्द के उत्तरवर्ती स्वीकार किया जाता है । अतः वट्टकेर प्रथम शताब्दी के बाद के प्राकृत आचार्य थे। इनका ग्रन्थ मूलाचार मुनियों के आचार का प्रमुख ग्रन्थ है। इसमें कुल 1252 गाथाएँ हैं। भाषा और शैली की दृष्टि से शौरसेनी प्राकृत की यह प्राचीन रचना है। श्रमणाचार का ग्रन्थ होने के कारण इसमें अनेक गाथाएँ दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के साहित्य में प्रचलित मिलती हैं। जैन आचार दर्शन के लिए मूलाचार एक आधारभूत ग्रन्थ है । विक्रम की 11-12वीं शती के आचार्य वसुनन्दि ने अपनी आचारवृत्ति में अनेक स्थानों पर मूलाचार के कर्ता के रूप में वट्टकेर का नामोल्लेख किया है। मूलाचारवृत्ति के प्रारम्भ के इस कथन का आशय यह है कि बल, बुद्धि और 310 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy