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मागधी प्राकृत की ये विशेषताएँ प्रायः संस्कृत नाटकों और शिलालेखीय प्राकृत में उपलब्ध होती हैं, किन्तु अन्य प्राकृतों के ग्रन्थों में इनके प्रयोग कम हैं। 341. मलवणिया, दलसुख भाई
श्रीमान् पं. दलसुखभाई डी. मालवणिया का जन्म गुजरात के सुरेन्द्र जिले के एक गांव सायला में 22 जुलाई 1910 को हुआ था । आपने न्यायतीर्थ परीक्षा 1931 में उत्तीर्ण की थी। आप बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में जैनदर्शन के प्राध्यापक रहे और 1959 ई. से आपने एल. डी. इन्स्टीट्यूट आफ इण्डालांजी, अहमदाबाद में अपनी सेवाएँ दी, तथा 1976 में वहाँ से सेवामुक्त हुए। प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी के आप ( 1957-73) सचिव रहे । इस सेवाकाल में प्रो. मालवणिया ने प्राकृत साहित्य और जैन आगमों के अध्ययन एवं प्रचार-प्रसाद में अपूर्व योगदान किया है। गणधरवाद, स्थानांग और समवायांगसूत्र प्राकृत ग्रन्थों का आपने सम्पादन-अनुवाद का कार्य किया। आगम युग का जैन दर्शन आपकी प्रसिद्ध पुस्तक है। पं. मालवणिया जी ने कनाड़ा, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों में भी जैनदर्शन और प्राकृत के प्रचार प्रसार के लिए भ्रमण किया था । 342. मुनिसुव्वयसामिचरियं
प्राकृत में 20वें तीर्थंकर पर श्रीचन्द्रसूरि की एक मात्रा रचना उपलब्ध होती है। इसमें लगभग 10994 गाथाएँ हैं । यह अप्रकाशित रचना है। प्रस्तुत चरित का समय निश्चित नहीं है पर एक हस्तलिखित प्रति के अनुसार ग्रन्थ रचना का समय सं. 1193 है। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से मालूम होता है कि लेखक ने आसापल्लिपुरी (वर्तमान अहमदाबाद) में श्रीमालकुल के श्रेष्ठ श्रावक श्रेष्ठि नागिल के सुपुत्र के घर में रहकर लिखा था। 343. मूलाचार (मूलायारो)
शौरसेनी प्राकृत के प्राचीन आचार्यों में मूलाचार के रचयिता वट्टकेर का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रारम्भ में आचार्य कुन्दकुन्द का ग्रन्थ ही मूलाचार मान लिया गया था क्योंकि वट्टर को उनका उपनाम अनुमानित किया गया था किन्तु अब विद्वानों ने गहन अध्ययन के बाद यह स्पष्ट कर दिया है कि वट्टकेर स्वतंत्र आचार्य हुए हैं। वट्टकेर का समय आचार्य कुन्दकुन्द के समकालीन स्वीकार
294 प्राकृत रत्नाकर