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है। इसमें बतलाया गया है कि श्रावस्ती का राजा किसी नगर के व्यापारी की पत्नी को अपनी रानी बनाना चाहता है। वह सफल भी हो जाता है किन्तु अन्त में देवताओं द्वारा मनोरमा के शील की रक्षा की जाती है। इस कथा को स्वतंत्र विशाल रचना के रूप में बनाया गया है जिसका परिमाण 1500 गाथाएँ हैं। इसकी रचना नवांगी टीकाकार अभयदेव के शिष्य वर्धमानाचार्य ने सं. 1140 में की है। 329. मलयसुन्दरीकथा
इसमें महाबलं और मलयसुन्दरी की प्रणयकथा का वर्णन है। इस नाम की अनेक रचनाएँ विविधकर्तक मिलती हैं। प्रथम प्राकृत 1256 गाथाओं में अज्ञातकर्तृक है। इसमें एक पौराणिक कथा का परीकथा से संमिश्रण किया गया है। इसमें प्रचुर कल्पनापूर्ण अनोखे और जादूभरे चमत्कारी कार्यों की बाढ़ में पाठक बहता है। इस उपन्यास में परीकथा साहित्य में सुज्ञात कल्पनाबन्धों (motifs) का ताना-बाना फैला हुआ है जिसमें राजकुमार महाबल और राजकुमारी मलयसुन्दरी का आकस्मिक मिलन, फिर एक दूसरे से वियोग और फिर सदा के लिए मिलन चित्रित है। यह सब उनके पूर्वोपार्जित कर्मों के फल का ही आश्चर्यकारी रूप था। पीछे महाबल जैन मुनि हो जाता है और मलयसुन्दरी साध्वी। इस तरह जैन पौराणिक कथा को परीकथा से संमिश्रितकर प्रस्तुत किया गया है। प्राकृत की यह रचना अभी अप्रकाशित है।
330. मल्लिनाथचरिय
____ 19वें तीर्थकर मल्लिनाथ पर प्राकृत में 3-4 रचनाएँ मिलती हैं। उनमें जिनेश्वरसूरिकृत का प्रमाण 5555 ग्रन्थान है। इसकी रचना सं. 1175 में हुई थी। जिनेश्वरसूरि के अन्य प्राकृत चरित-चन्दप्पहचरियं और नमिनाहचरियं भी इस काल के लगभग लिखे गये थे। द्वितीय रचना चन्द्रसूरि के शिष्य बडगच्छीय हरिभद्रसूरि की है जिसका ग्रन्थाग्र 9000 प्रमाण है। यह तीन प्रस्तावों में विभक्त है। इसकी रचना में सर्वदेवगणि ने सहायता की थी। ग्रन्थ के अन्त में दी गई प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इन्होंने कुमारपाल के मंत्री पृथ्वीपाल के अनुरोध पर
2840 प्राकृत रत्नाकर