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प्राकृत व्याकरण प्रतिनिधि ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध है, वहाँ पूर्वीय प्राकृत की प्रवृत्तियों का नियमन मार्कण्डेय के इस व्याकरण से पूर्णतया जाना जा सकता है। पूर्वीय प्राकृत वैयाकरणों के सम्बन्ध में डॉ. सत्यरंजन बनर्जी ने अपनी पुस्तक में पर्याप्त प्रकाश डाला है।
इन प्रमुख व्याकरण ग्रन्थों के अतिरिक्त राम शर्मा तर्कवागीश (17वीं शताब्दी) का प्राकृत कल्पतरु, शुभचन्द्रसूरी शब्दचिंतामणि, रघुनाथ (18वीं शताब्दी) का प्राकृतानंद, देवसुन्दर का प्राकृत युक्ति आदि भी प्राकृत व्याकरण के अच्छे ग्रन्थ हैं, जिनमें प्राकृत भाषा के साहित्यिक स्वरूप का यथार्थ विवेचन प्रस्तुत किया गया है। 302. प्राकृत स्वयं-शिक्षक __प्राकृत स्वयं-शिक्षक के लेखक प्राकृत भाषा के डॉ. प्रेम सुमन जैन हैं । प्राकृत स्वयं-शिक्षक प्राकृत के विद्यार्थियों के लिए सरल एवं सुबोध शैली में लिखी गई कृति है। इसमें वैकल्पिक प्रयोगों से रहित प्राकृत भाषा के स्वरूप को विभिन्न वाक्य-प्रयोगों एवं चार्टो द्वारा समझाया गया है। जिन विद्यार्थियों को बिल्कुल भी संस्कृत या प्राकृत नहीं आती है, वे इस सरल पद्धति से बड़ी ही आसानी से स्वयं ही प्राकृत भाषा का अध्ययन कर सकते हैं और उसे सीख सकते हैं । इस पुस्तक के पाँच संस्करण निकल चुके हैं। इसका अंग्रेजी और कन्नड़ संस्करण भी तैयार हुआ है। डॉ. प्रेम सुमन जैन ने हिन्दी भाषा के माध्यम से शौरसेनी प्राकृत के अध्ययन हेतु शौरसेनी प्राकृत भाषा एवं व्याकरण नामक एक शोध ग्रन्थ भी लिखा है। 303. प्राकृत साहित्य में लोक विश्वास ।
मानव समाज में आदि काल से अनेक प्रकार के ऐसे विश्वास, जो तर्क और बुद्धि से परे होते हैं, मान्य और प्रचलित रहे हैं। इन अन्धविश्वासों का लोककथाओं में समावेश है। लोकसाहित्य इन से भरा होता है । प्राकृत साहित्य में जो अन्धविश्वास व्यक्त हुए हैं उन्हें इस तरह विभाजित किया जा सकता है1. विद्या, मन्त्र और योग 2. जादू-टोना और झाड़ फेंक 3.शुभाशुभ शकुन विचार 4.अलौकिक चमत्कारों से सम्बद्ध
264 0 प्राकृत रत्नाकर