________________
(4) कभी-कभी प्रथमा के स्थान पर द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त होती है - अप्पाणं हवदि सद्दव्वं = आत्मा स्व द्रव्य है। (5) कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त होती है। असुहं कम्मं संसारं पवेसेदि = अशुभ कर्म संसार में प्रवेश कराता है। 3. करण कारक तृतीया = के द्वारा, साथ, से
क्रिया-फल की निष्पत्ति में सबसे अधिक निकट सम्पर्क रखने वाले साधन को करण कहते हैं। कार्य की सिद्धि में कई सहायक साधन होते हैं। अधिक सहायक साधन है में तृतीया विभक्ति का प्रयोग होगा। प्राचीन साहित्य में विभिन्न अर्थो में तृतीया विभक्ति का प्रयोग देखने का मिलता है। विशेष प्रयोग
तृतीया विभक्ति का उपयोग कर्मवाच्य एवं भाववाच्य के प्रयोगों में भी होता है। इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। कर्तवाच्य
कर्मवाच्य /भाववाच्य समणो गंथं भणदि समणेण गंथं भणिदं (श्रमण ग्रंथ को पढ़ता है) (श्रमण के द्वारा ग्रंथ पढ़ा गया)
मुणि झायदि मुणिणा झाइज्जदि (मुनि ध्यान करता है) (मुनि के द्वारा ध्यान किया जाता है) अनियमित प्रयोग
शौरसेनी आगम ग्रंथों में तृतीया विभक्ति के कतिपय अनियमित प्रयोग भी प्राप्त होते हैं, उन्हें अभ्यास से समझना चाहिए। जैसेतवसा अप्पा भावेदव्वा = तप के द्वारा आत्मा को जानना चाहिये। तं णत्थि जं तपसा ण लब्भइ = वह कोई उचित वस्तु नहीं है जो तप के द्वारा
प्राप्त न होती हो। जीवा कम्मणा वझंति . = जीव कर्मों के द्वारा बंधते हैं। यहाँ पर तपसा संस्कृत रूप तृतीया का यथावत प्रयोग कर लिया गया है। इसी प्रकार कम्मणा भी संस्कृत रूप का अनुशरण है। 2420 प्राकृत रत्नाकर