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प्रादेशिक भेद भी प्राप्त होते हैं। केन्द्रीय बोली मागधी के अतिरिक्त उत्तरी, पश्चिमी एवं पूर्वी भाषा के रूप भी इन लेखों में परिलक्षित होते हैं। साहित्यिक सिष्ट से भी ये अभिलेख महत्त्वपूर्ण हैं । अशोक द्वारा देवानां प्रिय प्रियदशी की उपधि धारण की गई थी, जो बाद में ब्राह्मण साहित्य में अत्यंत लोकप्रिय हुई।
f. इयं धमलिपी देवानं प्रियेन प्रियदसिना राया लेखापिता।..
_(पहला अभिलेख)
23. अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत
आदि युग की प्राकृत भाषा का प्रतिनिधत्व प्रथम शताब्दी के नाटककार अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत भाषा भी करती है। अर्धमागधी, शौरसेनी और मागधी प्राकृत की विशेषताएँ इन नाटकों में प्राप्त होती हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि इस युग में प्राकृत भाषा का प्रयोग क्रमशः बढ़ रहा था। और आगम ग्रन्थों की भाषा का कुछ-कुछ नया स्वरूप ग्रहण कर रही थी।
24. अश्वघोष के नाटक
संस्कृत नाटकों में प्राकृत भाषा का सर्वप्रथम प्रयोग अश्वघोष के नाटकों में प्राप्त होता है। अश्वघोष का समय लगभग ई. सन् की पहली शताब्दी माना गया है। अश्वघोष के शारिपुत्रप्रकरण एवं अन्य दो अधूरे नाटक ताड़पत्रों पर प्राप्त हुए हैं। शारिपुत्रप्रकरण नौ अंकों का प्रकरण है, जिसमें गौतम बुद्ध द्वारा मौद्गलायन
और शारिपुत्र को बौद्ध धर्म में दीक्षित किये जाने का वर्णन है। अश्वघोष के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत के अध्ययन के पश्चात् विद्वानों ने यही निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि इन नाटकों में अर्धमागधी, मागधी एवं शौरसेनी के प्राचीनतम् रूप उपलब्ध हैं। इन नाटकों की प्राकृत भाषाएँ अशोक के शिलालेखों की प्राकृत के अधिक निकट हैं। भाषा व साहित्य दोनों के ही इतिहास की दृष्टि से अश्वघोष के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृतों का अस्तित्व अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
प्राकृत रत्नाकर 017