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क्षत्री = खत्ती पुत्रः = पुत्तो ज्ञानी = णाणी आदि।
प्राकृत में स्वर रहित व्यंजनों का अर्थात् हलन्त व्यंजनों का प्रयोग शब्द के अन्त में नहीं होता। यथा -
पश्चात् > पच्छा तावत् > दाव, यावत् > जाव आदि।
प्राकृत में संयुक्त व्यंजनों को सरल व्यंजन के रूप में प्रयुक्त करने की प्रवृत्ति क्रमशः बढ़ी है। जहाँ संयुक्त व्यंजन सरल व्यंजन नहीं बन पाते वहाँ उनको उच्चारण में सरल करने का प्रयत्न रहा है। इसलिए प्राकृत में शब्द के प्रारम्भ में संयुक्त व्यंजन का प्रयोग नहीं होता। यथा
क्लेशः > किलेसो, श्वासः > सासो, श्यामा > सामा आदि।
प्राकृत में भिन्न वर्गीय संयुक्त व्यंजनों के स्थान पर समान वर्गीय व्यंजनों के मेल से उनके रूप बना लिये जाते हैं। इससे उनको उच्चारण करने में सुविधा रहती है। यथा -
दुग्धं > दुद्धं, भुक्तं > भुत्तं मूर्खः > मुक्खो आदि।
कतिपय संयुक्त व्यंजनों में स्वरों का आगम कर उन्हें सरलीकरण बनाने का प्रयत्न रहा है। यथा
रत्नम् > रयणं, रदणं स्नेहः > सणेहो गर्दा > गरिहा।
स्वरों की कमी, व्यंजनों की कमी, सरलीकरण की प्रवृत्ति, मुख-सौकर्य आदि के कारण में प्राकृत भाषा में जो वर्ण विकृति, स्वर-परिवर्तन, व्यंजनपरिवर्तन आदि हुए हैं, उनकी जानकारी प्राप्त करने से ही प्राकृत भाषा के ग्रन्थों के पठन-पाठन और सम्पादनकार्य में प्रवृत्त हुआ जा सकता है। संधि एवं समास के प्रयोग भी इस ध्वनिपरिवर्तन के ज्ञान से समझे जा सकते हैं।
प्राचीन भारतीय आर्यभाषा से मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं में ये सरलीकरण और ध्वनिपरिवर्तन की सामान्य एवं स्वाभाविक प्रक्रिया रही है। इसी प्रक्रिया से प्राकृत भाषा व साहित्य का शब्द भण्डार विकसित हुआ है। शब्द गढ़ने की प्राकृत की यह अपनी विशिष्ट शैली है। वैयाकरणों ने प्रारम्भ से इस प्रक्रिया को समझाने का प्रयत्न किया है। शौरसेनी, मागधी एवं महाराष्ट्री आदि प्राकृतों में यह परिवर्तन की प्रक्रिया कुछ विशिष्ट प्रयोगों को छोड़कर प्रायः समान रही है। 2380 प्राकृत रत्नाकर