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उन्होंने शौरसेनी प्राकृत में 'षट्खण्डागम' ग्रन्थ की रचना की। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री मानते हैं कि षट्खण्डागम ग्रन्थ का प्रारम्भिक भाग वनवास देश (उत्तर कर्णाटक) में रचा गया और शेष ग्रन्थ द्रविड़ देश में। इन दोनों आचार्यों में पुष्पदंत ज्येष्ठ थे और भूतबलि उनसे अवस्था में कम । विद्वानों ने इन आचार्यों का समय धरसेनाचार्य के समकालीन होने से वीरनिर्वाण सं. 633 के पश्चात् लगभग ई. सन् 50-90 माना है ।
‘षट्खण्डागम’ ग्रन्थ का विषय पुष्पदन्त एवं भूतबलि ने आचार्य धरसेन से पढ़ा था। इस ग्रन्थ को लिखने की रूपरेखा पुष्पदन्त ने बनायी होगी । किन्तु वे ग्रन्थ के प्रथम भाग सत्प्ररूपणा के 177 सूत्रों की रचना ही कर सके। बाद में भूतबलि ने ग्रन्थ के पाँच खण्डों के छः हजार सूत्रों की रचना की और बाद में महाबन्ध नामक छठे खण्ड के 30 हजार सूत्रों का निर्माण किया । वास्तव में षट्खण्डागम ग्रन्थ में प्राचीन परम्परा से प्राप्त श्रुतज्ञान की प्ररूपणा की गयी है । 'षट्खण्डागम' नामक शौरसेनी प्राकृत का यह प्राचीन ग्रन्थ छह खण्डों में विभक्त है :
1- जीवट्ठाण :
2- खुद्दाबन्ध :
3- बंध सामित्तविचय : कर्म की प्रकृतियां और उनके स्वामी ।
4- वेयणा
आठ कर्मों का वेदना की अपेक्षा से वर्णन ।
बन्धनीय पुद्गल स्कन्धों का वर्णन ।
प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बन्ध ।
इस तरह यह षट्खण्डागम ग्रन्थ जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त गुणस्थान और जीव की विभिन्न अवस्थाओं का सांगोपांग वर्णन करता है ।
5- वग्गणा
6- महाबंध
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गुणधर्म और अवस्थाओं का वर्णन ।
मार्गणाओं के अनुसार बन्ध और अबन्ध का वर्णन ।
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233. पैशाची प्राकृत
देश में उत्तर-पश्चिम प्रान्तों के कुछ भाग को पैशाच देश कहा जाता था । वहाँ पर विकसित इस जनभाषा को पैशाची कहा गया है। यद्यपि इसका कोई एक स्थान नहीं है। विभिन्न स्थानों के लोग इस भाषा को बोलते थे । प्राकृत भाषा से समानता होने के कारण पैशाची को भी प्राकृत का एक भेद मान लिया गया है।
प्राकृत रत्नाकर 177