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कहा है। सातवीं सदी के निशीथ - चूर्णिकार श्री जिनदासगणि ने अपना यही मत प्रकट किया है- मगहद्ध विसयभासानिबद्धं अद्धमागहं । निशीथचूर्णि के नवांगी टीकाकार अभयदेव ने इसमें कुछ लक्षण मागधी और कुछ लक्षण प्राकृत के पाये जाने के कारण इसे अर्धमागधी कहा है । प्राकृत के वैयाकरणों में मार्कण्डेय ने शौरसेनी के समीप होने से मागधी को ही अर्धमागधी कहा है। डॉ. जे. सी. जैन के अनुसार यही लक्षण ठीक प्रतीत होता है, क्योंकि यह भाषा शुद्ध मागधी नहीं थी । पश्चिम में शौरसेनी और पूर्व में मागधी के बीच के क्षेत्र में यह बोली जाती थी, इसलिए भी इसे अर्धमागधी कहा गया है।
अर्धमागधी की उपर्युक्त व्युत्पत्ति के आधार पर इस का मूल उत्पत्ति-स्थान पश्चिम मगध और सूरसेन (मथुरा) का मध्यवर्ती प्रदेश अयोध्या है। फिर भी इसका महाराष्ट्री प्राकृत से अधिक सादृश्य है, जो जैन संघ का दक्षिण में प्रवास होने का प्रभाव हो सकता है। इसके अतिरिक्त आर्येतर भाषाओं का प्रभाव भी इस पर पड़ा है। अर्धमागधी का रूपगठन मागधी और शौरसेनी की विशेषताओं से मिलकर हुआ है। यद्यपि इसमें मागधी की पूरी विशेषताएँ नहीं पायी जाती, फिर भी कुछ तो प्रभाव पड़ा है। उसी प्रकार अकारान्त शब्दों में प्रथमा विभक्ति एवं एकवचन में ए के साथ ओ और क के स्थान पर ग का पाया जाना शौरसेनी का प्रभाव कहा जा सकता है। किन्तु यह जैनसूत्रों की शौरसेनी का प्रभाव है, न कि नाटकों में प्रयुक्त शौरसेनी का । अतः इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार पालि में अनेक बोलियों का सम्मिश्रण हुआ है, उसी प्रकार भगवान् महावीर द्वारा प्रयुक्त अर्धमागधी में उनके प्रचार क्षेत्र की भाषाओं का सम्मिश्रण होना भी स्वाभाविक है।
अर्धमागधी प्राकृत में प्रमुख रूप से श्वेताम्बर जैन आगम साहित्य आज उपलब्ध हैं । आचारांगसूत्र, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययनसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा आदि प्रसिद्ध आगम इसी अर्धमागधी प्राकृत में हैं। यद्यपि इनकी भाषा के स्वरूप के कई स्तर विद्वानों ने निश्चित किये हैं । अर्धमागधी प्राकृत की व्याकरण एवं ध्वनि-परिवर्तन की दृष्टि से कई विशेषताएँ प्राचीन एवं अर्वाचीन भाषाशास्त्रियों ने गिनायी हैं एवं उनके उदाहरण भी दिये है । उन सबकी जानकारी प्राकृत व्याकरण के ग्रंथों से
प्राकृत रत्नाकर 09