SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चरित काव्यों में प्रायः मूलकथा के सम्बन्ध में विशेष रूप से विचार किया जाता है। इसके अतिरिक्त कवि प्रकृति आदि के अन्य वर्णनों में अधिक समय नष्ट नहीं करता है। इस प्रकार से वर्णनात्मक अंशों के आधिक्य के अभाव में ये काव्य कथात्मक स्वरूप धारण करते हैं। चरित काव्यों में नायक के पूर्व जन्मों के विवरण, वर्तमान जन्म के कारण तथा देश, नगर आदि के वर्णन मिलते हैं। यद्यपि इस प्रकार के काव्यों में अवान्तर कथाओं का समावेश किया जाता है फिर भी एक ही कथानक में अनेक घटनाओं को व्यर्थ बाँधने का प्रयत्न नहीं किया जाता है। इस प्रकार से काव्य में अधिक स्वाभाविकता आ जाती है। अपभ्रंश चरित काव्यों की परम्परा लगभग 17वीं शताब्दी तक चलती रही। 13. अभयदेवसूरि नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव एक महान् प्रतिभासम्पन्न आचार्य थे। प्रभावकचरित्र के अनुसार इनकी जन्मस्थली धारा नगरी है। वर्ण की दृष्टि से ये वैश्य थे। पिता का नाम महीधर और माता का नाम धनदेवी था।ये जिनेश्वरसूरि के शिष्य बने। वि.स. 1120 में इन्होंने सर्वप्रथम स्थानांग पर वृत्ति लिखी और वि.स. 1128 में अन्तिम रचना भगवतीसूत्र की वृत्ति है जो उन्होंने अनहिल पाटण में पूर्ण की। इस प्रकार उनका वृत्तिकाल वि.स.1120 से 1128 है। प्रस्तुत अवधि में आचार्य अभयदेव मुख्य रूप से पाटण में रहे हैं। वि.सं. 1128 में धोलका ग्राम में उन्होंने आचार्य हरिभद्र के पंचाशक ग्रन्थ पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण व्याख्या लिखी। इससे यह सिद्ध होता है कि वे पाटण को छोड़कर सन्निकट के क्षेत्रों में भी विचरण करते रहे थे। टीकाओं के निर्माण में चैत्यवासियों के नेता द्रोणाचार्य का उन्हें गहरा सहयोग मिला था जिसका उन्होंने अपनी वृत्तियों में उल्लेख भी किया है। द्रोणाचार्य ने अभयदेव की वृत्तियों को आदि से अन्त तक पढ़ा और उनका संशोधन कर अपने विराट हृदय का परिचय दिया। यह सत्य तथ्य है कि द्रोणाचार्य का सहयोग अभयदेव को प्राप्त न होता तो वे उस विराट कार्य को संभवतः इतनी शीघ्रता से सम्पादित नही कर पाते। 60 प्राकृत रत्नाकर
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy