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इनमें सबसे प्राचीन नाणपंचमीकहाओ नामक ग्रन्थ है जिसमें दस कथाएँ संकलित की गई हैं, वे हैं : जयसेणकहा, नन्दकहा, भद्दाकहा, वीरकहा, कमलाकहा, गुणाणुरागकहा, विमलकहा, धरणकहा, देवीकहा और भविस्सयत्तकहा। समस्त रचना में 2804 गाथाएँ हैं। इसकी भविस्सयत्तकहा के कथा बीज को लेकर धनपाल ने अपभ्रंश में भविस्सयत्तकहा या सूयपंचमीकहा नामक महत्त्वपूर्ण काव्य लिखा है, और उसका संस्कृत रूपान्तर मेघविजयगणि ने भविष्यदत्तचरित्र नाम से प्रस्तुत किया है। इसके रचयिता सज्जन उपाध्याय के शिष्य महेश्वरसूरि हैं। इस कृति की सबसे पुरानी ताड़पत्रीय प्रति वि. सं. 1109 की पाटन के संघवी भण्डार से मिली है। इससे अनुमान है कि यह इससे पूर्व की रचना है।
ज्ञानपंचमीकथा जैन महाराष्ट्री प्राकृत का एक सुन्दर कथाग्रंथ है जिसके कर्ता महेश्वरसूरि हैं। इनका समय ईसवी सन् 1052 से पूर्व ही माना जाता है। महेश्वरसूरि एक प्रतिभाशाली कवि थे जो संस्कृत और प्राकृत के पण्डित थे। इसकी कथा की वर्णनशैली सरल और भावयुक्त है। उनका कथन है कि अल्प बुद्धिवाले लोग संस्कृत कविता को नहीं समझते इसलिए सर्वसुलभ प्राकृत काव्य की रचना की जाती है। गूढार्थ और देशी शब्दों से रहित तथा सुललित पदों से ग्रथित और रम्य प्राकृत काव्य किसके मन को आनन्द प्रदान नहीं करता ? ग्रन्थ की भाषा पर अर्धमागधी और कहीं अपभ्रंश का प्रभाव है, गाथाछंद का प्रयोग किया गया है। द्वीप, नगरी आदि का वर्णन आलंकारिक और श्लेषात्मक भाषा में है। जहाँ-तहाँ विविध सुभाषित और सदुक्तियों के प्रयोग दिखाई देते हैं। इस कृति में दस कथायें हैं जो लगभग 2,000 गाथाओं में गुंफित हैं। पहली कथा जयसेणकहा और अन्तिम कथा भविस्सयत्तकहा है, ये दोनों अन्य कथाओं की अपेक्षा लंबी हैं। प्रत्येक कथा में ज्ञानपंचमी व्रत का माहात्मय बताया गया है। ज्ञानप्राप्ति के एक मात्र साधन पुस्तकों की रक्षा को प्राचीन काल में अत्यन्त महत्त्व दिया जाता था। इसलिये जैन आचार्यों ने कार्तिक शुक्ल पंचमी को
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