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जैन परम्परा के प्राचीन ग्रंथ प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं । श्रमण परम्परा के पोषक वैदिक युगीन व्रात्य आदि प्राचीन प्राकृत का व्यवहार करते थे। उनकी प्राकृत साहित्यिक भाषा छान्दस् से भिन्न थी । वह शूरसेनों की भाषा प्राकृत की परम्परा में विकसित हुई थी । श्रमण परम्परा के महापुरुष भगवान् महावीर ने भी अपने उपदेशों की भाषा जन - बोली प्राकृत को बनाया। महावीर के उपदेश दो रूपों में संरक्षित और संकलित हुए। गणधर और आचार्यो की परम्परा द्वारा स्मरण द्वारा महावीर के उपदेशों को द्वादशांग श्रुत के रूप में सुरक्षित रखा था, वह क्रमशः विलुप्त होता गया । अतः शेष श्रुतांश को दक्षिण भारत के दिगम्बर जैनाचार्यो ने स्वतन्त्र ग्रंथों की रचना कर और उसे ईसा की प्रथम शताब्दी में लिपिबद्ध कर सुरक्षित किया। दिगम्बर परम्परा के अनुसार ई. पू. प्रथम शताब्दी में गुणधराचार्य ने कसायपाहुड नामक ग्रंथ की रचना 180 शौरसेनी प्राकृत गाथाओं में की। दिगम्बर परम्परा में लिपिबद्ध श्रुत ग्रंथों की श्रेणी में गुणधराचार्य को प्रथम श्रुतकार स्वीकार किया गया है। इन्हीं के परवर्ती आचार्य धरसेन की प्रेरणा से आचार्य पुष्पदन्त एवं मुनिश्री भूतबलि (ईसा के 73 से 87 वर्ष के लगभग) ने षट्खण्डागम नामक ग्रंथ की शौरसेनी प्राकृत में रचना की और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी ( श्रुतपंचमी) को उसकी लिखित ताड़पत्रीय प्रति की संघ ने पूजा की। ग्रंथलेखन का यह क्रम निरन्तर चलता रहा। जैन आगमों की यह सुरक्षा तत्कालीन प्रमुख प्राचीन प्राकृत शौरसेनी में की गयी। यही शौरसेनी प्राकृत तब दक्षिण से उत्तर और पूर्व से पश्चिम तक संपर्क भाषा प्राकृत के रूप में प्रसिद्ध थी । अतः दिगम्बर परम्परा के इन ग्रंथों में कहीं इस प्राकृत के नामोल्लेख की आवश्यकता नहीं हुई। और इस भाषा की परम्परा आगे 12-13 वीं शताब्दी तक ग्रंथलेखन में चलती रही ।
महावीर के उपदेशों को सुरक्षित रखने का दूसरा प्रयत्न श्वेताम्बर आचार्यो की परम्परा में भी हुआ । श्रुत एवं स्मरण की परम्परा से उन्होंने महावीर के उपदेशों को 11 अंग ग्रंथों के रूप में संकलित किया । फिर शेष उपदेशों को उपांग एवं मूलसूत्र ग्रंथों में संकलित किया । और संपूर्ण कार्य होने पर ईसा की पांचवी शताब्दी के लगभग वल्लभीनगर में संपूर्ण आगम ग्रंथों को प्रथम बार लिपिबद्ध भी कर लिया गया। ये आगम जिस प्राकृत भाषा में संकलित किये गये, उसे अर्द्ध
116 0 प्राकृत रत्नाकर