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जीतकल्प में 103 गाथाएँ हैं और इस स्वोपज्ञ भाष्य में 2606 गाथाएँ हैं। इसमें जीतव्यवहार के आधार पर जो प्रायश्चित्त दिये जाते हैं उनका संक्षेप में वर्णन है। चारित्र में जो स्खलनाएँ हो जाती हैं उनकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित का विधान है। 138.जीव समास __ इसकी रचना पूर्वधारियों द्वारा की गई है। ज्योतिष्करंडक की भाँति जैन आगमों में वलभी वाचना का अनुसरण करके इसकी भी रचना हुई है। इसमें 286 गाथाओं में सत्, प्रमाण, क्षेत्र, स्पर्श, काल, अन्तर और भाव की अपेक्षा जीवाजीव का विचार किया गया है। इस पर मलधारि हेमचन्द्रसूरि ने विक्रम संवत् 1234 ईसवीं सन् 1107 में 700 शोकप्रमाण वृहदवृत्ति की रचना की है। शीलांक आचार्य ने भी इस पर वृत्ति लिखी है। 139. जैन आगम एवं प्राकृत __ प्राकृत भाषा का प्रयोग जनबोली के रूप में होने पर भी वह व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध एवं व्यवस्थित भाषा थी। विकल्प रूपों का , देशी शब्दों का प्रयोग उसकी विशेषता है, किन्तु अशुद्धता नहीं। आज भी प्रान्तीय भाषाएँ जनता में बोली जाती हैं। जैसे राजस्थानी भाषा का प्रयोग पूरे राजस्थान और देश में जहाँ भी राजस्थानी हैं वहाँ पर होता है। स्थान भेद से मारवाड़ी, बागड़ी, हाडौती, ढुंढारी, मेवाडी आदि अनेक रूप राजस्थानी के व्यवहार में आते हैं। इन सबके लिखित व्याकरण ग्रंथ सभी जनता ने नहीं पढ़े हैं किन्तु फिर भी लोग जब राजस्थानी का व्यवहार करते हैं तो परम्परा के अनुसार उसमें एक व्यवस्था का ध्यान रखते हैं। भाषा की व्याकरण संबंधी व्यवस्था ही उसे अभिव्यक्ति का बल प्रदान करती है। यही बात वैदिक युग और उसके बाद की प्राकृतों के संबंध में हैं। स्थानीय भेदों के उपरान्त भी प्राकृतों में व्याकरण की व्यवस्था रही है। अन्यथा वह अपने समय की साहित्यिक भाषा छान्दस् व संस्कृत के साथ-साथ नहीं चल पाती। सिद्धान्त और काव्य ग्रंथों की भाषा बनने के लिए व्याकरण की व्यवस्था प्राकृत में होना आवश्यक थी। कोई भी कवि/आचार्य व्याकरण से रहित प्राकृत भाषा का प्रयोग कर विद्वत् समाज में समादृत नहीं हो सकता था। प्राकृत भाषा की व्याकरण संबंधी शुद्धता और व्यवस्था के अनेक उदाहरण/उल्लेख जैन आगम परम्परा के ग्रंथों एवं उनकी व्याख्याओं में उपलब्ध हैं।
प्राकृत रत्नाकर 0115