________________
जीवन चरित का इसमें वर्णन हुआ है। भरत की दिग्विजय, भरत एवं किरातों के युद्ध, तीर्थंकर के कल्याण - महोत्सव, बहत्तर कलाएँ, स्त्रियों की विशिष्ट चौसठ कलाएँ तथा अनेक शिल्प आदि का भी इसमें वर्णन हुआ है।
इस उपांग में एक अध्ययन है और सात वक्षस्कार है। उपलब्ध मूलपाठ का श्लोक प्रमाण 4146 है। 178 गद्यसूत्र हैं और 52 पद्यसूत्र हैं। प्रथम पक्षस्कार ( परिच्छेद) में भरतक्षेत्र का वर्णन है । सर्वप्रथम नमस्कार महामन्त्र है । मिथिलानगरी में जितशत्रु राजा था। उसकी रानी का नाम धारिणी था। उस नगरी के मणिभद्र नामक चैत्य में श्रमण भगवान् महावीर का शुभागमन हुआ। उस समय इन्द्रभूति गौतम ने जम्बूद्वीप के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की । उत्तर में महावीर ने कहा- जम्बूद्वीप में अवस्थित पदवरवेदिका एक वनखण्ड से घिरी हुई है । वनखण्ड के मध्य में अनेक पुष्करणियाँ, वापिकाएँ, मंडप, गृह और पृथ्वीशिलापट्ट है । वहाँ पर अनेक व्यन्तर, देव और देवियाँ कमनीय क्रीड़ा करते है । जम्बूद्वीप के विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के चार द्वार हैं। जम्बूद्वीप में हिमवान पर्वत के दक्षिण में भरतक्षेत्र है।
प्रस्तुत आगम में प्राचीन भूगोल का महत्त्वपूर्ण संकलन है। जैनदृष्टि से सृष्टि विद्या के बीज इसमें उपलब्ध होते हैं। आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का प्रागऐतिहासिक जीवन चरित्र भी इसमें मिलता है। सम्राट भरत की दिग्विजय का वर्णन भी प्राप्त होता है। तीर्थकरों के कल्याणक उत्सवों का निरूपण पाया जाता है। जन्मोत्सव का जैसा निरूपण इस ग्रन्थ में किया गया है, वैसा ही पुराणों में पाया जाता है।
126. जयधवला टीका
आर्यमंक्षु और नागहस्ति ने कसायपाहुड प्राचीन ग्रन्थ का व्याख्यान किया तथा आचार्य यतिवृषभ ने इस पर चूर्णि सूत्रों की रचना की है। आचार्य वीरसेन ने जयधवला नाम की टीका लिखना आरम्भ किया था । तथा बीस हजार प्रमाण टीका लिखने के अनन्तर ही उसका स्वर्गवास हो गया। फलतः उनके इस महान् कार्य को उनके योग्य शिष्य आचार्य जिनसेन ने चालीस हजार लोक प्रमाण अवशेष टीका लिखकर ईस्वी सन् 837 में इसे पूर्ण किया। इस प्रकार जयधवला टीका साठ हजार श्लोक प्रमाण है ।
108 Û प्रांकृत रत्नाकर