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था और वे ई. सन् 1750 तक जीवित रहे। 29 वर्ष की अवस्था में ये तन्जोर के तुक्कोजि प्रथम के मन्त्री नियुक्त हुए। इनका परिवार धार्मिक और साहित्यिक प्रवृत्ति का था। इनकी पत्नियाँ संस्कृत काव्य रचना के समय इनकी सहायता करती थीं । घनश्याम को सार्वजनिक कवि कंठरव एवं चौडाजि कवि आदिआदि नामों से अभिहित किया जाता था । इन्होंने अपने को सात-आठ भाषाओं और लिपियों में निष्णात लिखा है। घनश्याम ने 64 संस्कृत में, 20 प्राकृत में और 25 रचनाएँ देशी भाषा में लिखी हैं ।
घनश्याम ने अपने को सर्वभाषा कवि घोषित किया है। उनका अभिमत है कि जो एक भाषा में कविता करता है, वह एक देश का कवि है जो अनेक भाषाओं में कविता करता है, वही सर्वभाषा कवि कहलाता है । प्रकृत्या कवि घनश्याम दम्भी प्रतीत होता है और यही कारण है कि अपने समय के कवियों में वह यश प्राप्त नहीं कर सका। वह महाराष्ट्र का निवासी था।
113. चौपन्नमहापुरुषचरित (चउपन्नमहापुरिसचरियं )
चौपनमहापुरुषचरित आचार्य शीलांकाचार्य द्वारा रचित विशालकाय ग्रन्थ है । विद्वानों ने विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर इसका रचनाकाल ई. सन् 868 निर्धारित किया है। आचार्य शीलांकाचार्य ने इस चरितकाव्य में 24 तीर्थंकरों, 12 चक्रवर्तियों, 9 वासुदेवों, 9 बलदेवों को मिलाकर चौवन शलाका पुरुषों का जीवन-चरित ग्रथित किया है । ऋषभदेव, भरत चक्रवर्ती, शान्तिनाथ, मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ के जीवन चरित का इसमें विस्तार से निरूपण हुआ है। इस चरितकाव्य का उद्देश्य शुभ-अशुभ कर्म परिणामों की विवेचना करना है, अतः मूल चरित-नायकों के पूर्वभवों का विवेचन भी ग्रन्थ में हुआ है। मूलकथानकों के साथ अनेक अवान्तर कथाओं के गुम्फन द्वारा जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों, विकारों, आसक्तियों, निदान आदि का भी विश्लेषण किया गया है। वस्तुतः यह चरितकाव्य सांसारिक नश्वरता के बीच-बीच में जीवन के विराट रूप को प्रस्तुत करता है। दान, दया, करुणा आदि मानवीय मूल्यों का भी इसमें सुन्दर अंकन हुआ है। जीव-दया एवं पक्षियों के प्रति करुणा के फल का संदेश देने वाली यह गाथा दृष्टव्य है -
प्राकृत रत्नाकर 099