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इनकी तीन विशाल कृतियों के पीछे दिये गये प्रशस्ति पद्य बड़े महत्त्व के हैं जिनसे इनकी गुरुपरम्परा तथा रचनाओं का संवत् मालूम होता है। तदनुसार आचार्य देवभद्र सुमतिवाचक के शिष्य थे, आचार्य पद पर आरूढ़ होने के पहले उनका नाम गुणचन्द्रगणि था। इसी नाम से उन्होने वि.सं. 1125 में संवेगरंगशाला नाम से आराधनाशास्त्र का संस्कार किया था और वि.सं. 1139 में महावीरचरियं का निर्माण किया था। संवेगरंगशाला की पुष्पिका में 'तद्विनेय श्री प्रसन्नचन्द्रसूरि समभ्यर्थितेन गुणचन्द्रगणिना तथा तव्वयणेणं गुणचंदेणं' पदों से ज्ञात होता है कि आचार्य प्रसन्नचन्द्र और देवेन्द्रसूरि का पारस्परिक सम्बन्ध दूर से था और दोनों परस्पर गुणानुरागी थे। गुणचन्द्र उन्हें बड़े आदर से देखते थे यह कथारत्नकोश और पार्श्वनाथ की प्रशस्ति में आनेवाले 'तस्सेवगेहिं' और 'पयपउमसेवगेहिं' पदों से ज्ञात होता है। प्रसन्नचन्द्र ने गुणचन्द्र के गुणों से आकर्षित होकर उन्हें आचार्य पद पर आरूढ़ किया था। 110. गुणधराचार्य
दिगम्बर परम्परा में जो शौरसेनी प्राकृत में लिखित ग्रन्थ प्राप्त होते हैं उनमें प्रथम श्रुत ग्रन्थ का प्रणयन करने वाले आचार्य गुणधर हैं। इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार, नन्दिसंघ की शौरसेनी प्राकृत पट्टावलि और जयधवला टीका आदि में आचार्य गुणधर और उनकी पूर्व परम्परा का वर्णन मिलता है। विद्वानों ने गुणधराचार्य का समय विक्रम पूर्व प्रथम शताब्दी स्वीकार किया है। ये आचार्य धरसेन और कुन्दकुन्द के पूर्ववर्ती हैं इनको अर्हद्वली संघनायक के समकालीन माना जाता है। गुणधराचार्य दिगम्बर परम्परा के प्रथम सूत्रकार हैं। इन्होंने 'कसायपाहुड' नामक ग्रन्थ की रचना 180 शौरसेनी प्राकृत गाथाओं में है, जो 16000 पदप्रमाण विषय को अपने में समेटे हुए हैं। ग्रन्थकार अपनी गाथाओं को सूत्रगाथा कहते हैं
गाहासदे असीदे अत्थे पण्णरसधा विहब्ठम्मि। वोच्छामि सुब्लगाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि॥-गा.2 कसायपाहुड को पेज्जदोसपाहुड भी कहते हैं । कषाय राग-द्वेष का सम्मिलित नाम है। उनकी परिणति है। अतः कषायों में जो कर्मबन्ध होता है, उसकी प्रकृति,
प्राकृत रत्नाकर 097