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गाथाछंद का निर्देश है। नन्दिताढ्य ने ग्रन्थ के आदि में नेमिनाथ भगवान् को नमस्कार किया है जिससे उनका जैन धर्मानुयायी होना निश्चित है। ग्रन्थकार ने अवहट्ठ अपभ्रंश भाषा के प्रति तिरस्कार ब्यक्त किया है। (गाथा 31)। इससे अनुमान किया जाता है कि नन्दिताढ्य ईसवीं सन् 1000 के आसपास में मौजूद रहे होंगे। गाथालक्षण पर 108 प्रकरण-ग्रन्थों के लेखक महाकवि देवनन्द मुनि के शिष्य रत्नचन्द्र ने टीका लिखी है। 108. गुणपाल मुनि
जम्बूचरियं के रचयिता नाइलगच्छीय गुणपाल मुनि हैं जो वीरभद्रसूरि के प्रशिष्य एवं प्रद्युम्नसूरि के शिष्य थे। संभवतः कुवलयमाला के रचयिता उद्द्योतनसूरि के सिद्धान्तगुरु वीरभद्राचार्य और गुणपाल मुनि के दादागुरु वीरभद्रसूरि दोनों एक ही हों। ग्रन्थ की शैली पर हरिभद्र की समराइच्चकहा और उद्द्योतनसूरि की कुवलयमाला का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उक्त कथाग्रन्थों के समान ही यह भी गद्य-पद्य मिश्रित है। ग्रन्थकार और उक्त रचना के काल के संबंध में कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है पर रचनाशैली आदि से अनुमान होता है कि इसे 10-11वीं शताब्दी के आसपास ही रचना होना चाहिए। इसकी एक ताड़पत्रीय प्रति जैसलमेर जैन भण्डार से 14वीं शताब्दी के पूर्व की मिलती है। 109.गुणचन्द्रसूरि
महत्त्वपूर्ण कृति महावीरचरियं के रचयिता गुणचन्द्रसूरि हैं जो आचार्य पद पाने के बाद देवभद्रसूरि कहलाने लगे थे। इन्होंने अपने छत्रावली (छत्राल) निवासी सेठ शिष्ट और वीर की प्रार्थना पर वि. सं. 1139 ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया सोमवार के दिन इस ग्रन्थ की रचना की थी। प्रशस्ति में शिष्ट और वीर के परिवार का परिचय दिया गया है।
960 प्राकृत रत्नाकर