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शास्त्रीय और न ऐतिहासिक ही। वस्तुतः वाक्पतिराज ने संस्कृत-प्राकृत के महाकाव्यों में इसका विशेष स्थान बने इस दृष्टि से इसे अनोखा बनाया है। विभाजन की दृष्टि से इसमें नयापन है। कथावस्तु बहुत छोटी, किन्तु उसका विस्तार बड़ा सार्थक है। यशोवर्मा की प्रशस्ति में लिखा गया यह महाकाव्य चाटुकारिता से कोसों दूर है। फिर भी वस्तुवर्णन और भाववर्णन में बेजोड़ है। अतः प्राकृत महाकाव्यों का गउडवहो एक प्रतिनिधि काव्य है। इसे महाकाव्यों की विशेष कोटि में रखना होगा जिसे प्रशस्ति महाकाव्य कह सकते हैं। या फिर विजय महाकाव्य इसे कहा जा सकता है। क्योंकि प्रत्येक वर्णन का प्रसंग विजय यात्रा से जुड़ा हुआ है। गउडवहो महाकाव्य की एक विशेषता यह भी परिलक्षित होती है कि कवि की दृष्टि ग्राम्यजीवन की नैसर्गिक शोभा से अधिक आकृष्ट हुई है। दूर-दूर बने हुए घरों वाले किसी वनग्राम का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि गाँवों में फलों को प्राप्त कर बच्चे प्रसन्न होते हैं, लकड़ी के बने हुए घरों से गाँव रमणीय लगते हैं ऐसे अधिक भीड़-भाड़ से रहित वनग्राम हृदय को हरण कर लेते हैं -
फललम्भमुइयडिम्भा सुदारुघरसंणिवेस रमणिज्जा। एए हरन्ति हिययं अजणाइण्णा वणग्गामा ॥ 607 ॥
वाक्पतिराज ने वस्तु व्यापार, मनःस्थिति एवं विविध सौन्दर्ययुक्त वर्णनों को अनेक अलंकारों से सजाया है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, आदि के साथ दृष्टान्त अलंकार के प्रयोग में कवि ने विशेष रुचि दिखायी है। कवि अनुभव की बात सरल शब्दों में कहता है कि ऊँचे व्यक्ति को देखकर विस्मय और नीच को देखकर उसी प्रकार शंका होती है जैसे पहाड़ को देखकर विस्मय और कुँए को देखकर शंका होती है। यथा
तुंगावलोयणे होई विम्हओ णीय-दसणे संका।। जह पेच्छताण गिरिं जहेय अवडं णियंताण ॥ 897 ॥
गउडवहो में कवि ने लोक से प्राप्त अनेक अपने अनुभवों को पाठकों के समक्ष रखा है। कवि की अनुभूतियाँ अत्यन्त गहरी हैं। उनका सम्बन्ध धनवानों एवं राजघराने के अधिकारियों से रहा है। अतः वे निर्भीकता पूर्वक, कभी-कभी
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