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श्राद्धविधि प्रकरणम् होते हैं, और अन्त के तीन कारणों से देखे हुए शुभ अथवा अशुभ स्वप्न अपना फल देनेवाले होते हैं। रात्रि के प्रथम, दूसरे, तीसरे और चौथे प्रहर में देखे हुए स्वप्न क्रम से बारह, छ, तीन और एक मास में अपना फल देते हैं। रात्रि की अंतिम दो घड़ी में देखे हुए स्वप्न दस दिन में फल देते हैं, और सूर्योदय के समय देखा हुआ स्वप्न तो तत्काल फल देता है। एकके ऊपर एक आये हुए, दिन में देखे हुए, मन की चिंता से, शरीर की किसी व्याधि से अथवा मलमूत्रादिक के रोकने से आये हुए स्वप्न निरर्थक हैं। प्रथम अशुभ और पश्चात् शुभ आवे अथवा प्रथम शुभ और पश्चात् अशुभ आवे, तो भी पीछे से आये वही स्वप्न फल का देनेवाला है। बुरा स्वप्न आये तो उसकी शांति करनी चाहिए। स्वप्नचिंतामणि शास्त्र में भी कहा है कि, अनिष्ट स्वप्न देखते ही रात्रि हो तो पुनः सो जाना, वह स्वप्न कभी किसी को नहीं कहना। कारण कि, वैसा बुरा स्वप्न का बुरा फल कदाचित् नहीं भी होता है। जो पुरुष प्रातःकाल उठकर जिन भगवान् का ध्यान अथवा स्तुति करता है किंवा पांच नवकार गिनता है उसका दुःस्वप्न निरर्थक हो जाता है। देवगुरु की पूजा तथा शक्ति के अनुसार तपस्या करना। इस प्रकार जो मनुष्य धर्मकृत्य में रत रहते हैं उनको आये हुए बुरे स्वप्न भी उत्तमफल को देनेवाले हो जाते हैं। देवगुरु उत्तमतीर्थ तथा आचार्य इनका नाम लेकर तथा स्मरणकर जो मनुष्य निद्रा लेते हैं उनको कभी भी बुरा स्वप्न नहीं आता। माता-पिता को प्रणाम :
पश्चात् खुजली आदि हुई हो तो उस पर थूक लगाकर मलना, और शरीर के अवयव दृढ़ होने हेतु अंगमर्दन करना। पुरुष प्रातःकाल में प्रथम अपना दाहिना हाथ देखे तथा स्त्री बांया हाथ देखे। क्योंकि वह अपना पुण्य प्रकट बतलाता है। जो मनुष्य मातापिता इत्यादि वृद्धपुरुषों को नमस्कार करता है उसे तीर्थयात्रा का फल प्राप्त होता है। इसलिए उनकों नित्य नमस्कार करना चाहिए। जो मनुष्य वृद्धपुरुषों की सेवा नहीं करते उनसे धर्म दूर रहता है और जो मनुष्य राजा महाराजादि की सेवा नहीं करते उनसे लक्ष्मी दूर रहती है, और जो मनुष्य वेश्या के साथ मित्रता रखता है उससे आनंद दूर रहता है। व्रत-नियम :
रात्रि प्रतिक्रमण करनेवाले को पच्चक्खाण का उच्चारण करने के पूर्व सचित्तादि चौदह नियम लेने चाहिए। प्रतिक्रमण न करे उसको भी सूर्योदय के पूर्व चौदह नियम ग्रहण करना, शक्ति के अनुसार नवकारसी, गंठिसहिअ, (मुट्ठिसहिअ) बियासणा, एकासणा इत्यादिक पच्चक्खाण करना। तथा सचित्त द्रव्य का और विगई आदिका जो नियम रखा हो, उसमें संक्षेप करके देशावकाशिक व्रत करना, विवेकी पुरुष को प्रथम सद्गुरु के पास यथाशक्ति समकित मूल बारहव्रतरूप श्रावक धर्म का ग्रहण अवश्य करना, कारण कि, ऐसा करने से सर्वविरति (चारित्र) के लाभ होने का संभव रहता है। विरति का फल बहुत ही बड़ा है। मन-वचन-काया के व्यापार न चलते हो तो भी