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________________ 71 श्राद्धविधि प्रकरणम् उत्तरार्द्ध की व्याख्या धर्मजागरिका कर लेने के अनन्तर प्रतिक्रमण करनेवाले श्रावकको रात्रिप्रतिक्रमण करके, तथा न करनेवाले को भी 'रागादिमय कुस्वप्न, 'द्वेषादिमय दुःस्वप्न तथा बुरे फल का देनेवाला स्वप्न इन तीनों में से प्रथम के परिहार के निमित्त एक सौ आठ श्वासोश्वास का काउस्सग्ग करना। प्रतिक्रमण विधि आगे वर्णन करेंगे। व्यवहार भाष्य में कहा है कि-प्राणातिपात (हिंसा), मृषावाद (असत्य वचन), अदत्तादान (चोरी), मैथुन (रतिक्रीड़ा), तथा परिग्रह (धन-धान्यादि का संग्रह) ये पांचों स्वप्न में स्वयं किये, कराये अथवा अनुमोदन किया हो तो पूरे सौ श्वासोश्वास का काउस्सग्ग करना। मैथुन (रतिक्रीड़ा) स्वयं किया हो तो सत्ताइस श्लोक (एकसौ आठ श्वासोश्वास) का काउस्सग्ग करना। काउस्सग्ग में पच्चीस श्वासोश्वास प्रमाणवाला (चंदेसु निम्मलयरा तक) लोगस्स चार बार गिनना अथवा पच्चीस श्लोक प्रमाणवाले दशवैकालिक सूत्र के चौथे अध्ययन में किये हुए पंचमहाव्रत का चिन्तन करना अथवा स्वाध्याय के रूप में चाहे कोई पच्चीस श्लोक गिनना। इस तरह व्यवहार भाष्य की वृत्ति में कहा है। प्रथम पंचाशक की वृत्ति में भी कहा है कि किसी समय मोहनीय कर्म के उदय से स्त्रीसेवारूपी कुस्वप्न आवे तो उसी समय उठकर ईरियावहिपूर्वक प्रतिक्रमणकर एकसो आठ श्वासोश्वास (सगरवरगंभीरा तक चार लोगस्स) का काउस्सग्ग करना। काउस्सग्ग करने के अनन्तर और रात्रिप्रतिक्रमण का समय हो तब तक अति निद्रा आदि प्रमाद हो तो पुनः काउस्सग्ग करना। किसी समय दिन में निद्रा लेते कुस्वप्न आवे तो भी इसी प्रकार से काउस्सग्ग करना ऐसा ज्ञात होता है; परन्तु वह उसी समय करना? कि संध्या समय प्रतिक्रमण के अवसर पर करना? यह बहुश्रुत जाने। स्वप्न विचार : विवेकविलासादि ग्रंथ में तो यह कहा है कि, उत्तम स्वप्न देखा हो तो पुनः सोना नहीं, और सूर्योदय होने पर वह स्वप्न गुरु को कहना। दुःस्वप्न देखने में आये तो इससे प्रतिकूल करना, अर्थात् देखते ही पुनः सो जाना, और किसी के संमुख कहना भी नहीं। जिसके शरीर में कफ, वात, पित्त का प्रकोप अथवा किसी जाति का रोग न हो तथा जो शान्त, धार्मिक और जितेन्द्रिय हो उसी पुरुष के शुभ अथवा अशुभ स्वप्न सच्चे होते हैं। १ अनुभव की हुई बात से, २ सुनी हुई बात से, ३ देखी हुई बात से, ४ प्रकृति के अजीर्णादि विकार से, ५ स्वभाव से, ६ निरन्तर चिन्ता से,७ देवतादिक के उपदेश से,८ धर्मकार्य के प्रभाव से तथा ९ अतिशय पाप से, ऐसे नौ कारणों से मनुष्य को नौ प्रकार के स्वप्न आते हैं। प्रथम के छः कारणों से देखे हुए शुभ अथवा अशुभ स्वप्न निष्फल १. स्वप्न में स्त्री को भोगना अथवा अन्य कोई कामचेष्टा करना उसे शास्त्र में कुस्वप्न कहते हैं। २. स्वप्न में किसी के साथ वैर मत्सर करना अथवा किसी भी प्रकार द्वेषादिक से प्रकट करना उसे दुःस्वप्न कहते हैं।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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